अनाहूत
जेठक दुपहरिआमे,
पीपरक गाछ तर,
असोथकित बैसल छलहुँ,
एतबहिमे क्यो अनाहूत,
हमरे इशारा कए,
किछु कहि रहल छल ।
"जे हम दुखक झंझाबातसँ, दग्धभए, सुखक
अन्वेषणमे,
तोरे देह सँ बहराएल छलहुँ,
मुदा एहि अर्थ युगमे,अभावक चक्रव्युहमे ओझराऐल,
पुनः तोरे देहमे प्रवेशक हेतु,
चेष्टा कए रहल छी ।
हमर अतिरुग्ण तन, अपने प्राणसँ डरि रहल छल,
जे एकर पुनरागमनसँ,
दुखक नूतन शृँखला प्रारंभ होएत,
कहि उठल-
"ठामहि रहह,हम विदा छी । "
(सन्१९८१)
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