मंगलवार, 15 मई 2018

अनाहूत


अनाहूत

जेठक दुपहरिआमे,

पीपरक गाछ तर,

असोथकित बैसल छलहुँ,

एतबहिमे क्यो अनाहूत,

हमरे इशारा कए,

किछु कहि रहल छल ।

"जे हम दुखक झंझाबातसँ, दग्धभए, सुखक अन्वेषणमे,

तोरे देह सँ बहराएल छलहुँ,

मुदा एहि अर्थ युगमे,अभावक चक्रव्युहमे ओझराऐल,

पुनः तोरे देहमे प्रवेशक हेतु,

चेष्टा कए रहल छी ।

हमर अतिरुग्ण तन, अपने प्राणसँ डरि रहल छल,

जे एकर पुनरागमनसँ,

दुखक नूतन शृँखला प्रारंभ होएत,

कहि उठल-

"ठामहि रहह,हम विदा छी । "



(सन्१९८१)

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