मैथिलीमे हमर प्रकाशित पोथी

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मंगलवार, 11 जून 2019

जीवन और मृत्यु


जीवन और मृत्यु



 पता नहीं कितने सालों से जीवन पृथ्वी पर है ? क्या पृथ्वी के अलावा कहीं और भी जीवन है? क्या जीवन के बाद हमरा कुछ आस्तित्व रहता है, कि जीवन के अंत याने मृत्यु के साथ ही सब कुछ समाप्त हो जाता है?

जन्म लेने के बाद समस्त जीव-जन्तु निरंतर विकास करता रहता है । यह प्रकृति की सुनियोजित और स्वचालित व्यवस्था है जो विना किसी अपवाद के सबों पर लागू होता है । फिर भी नियतिवश कई बर दुर्घटनाओं का शिकार होकर कई बार यह विकास का क्रम अधूरा ही रह जाता है । लेकिन सामान्यतः यह जीवन चक्र अपनी पूर्णता के लिए अग्रसर होती रहती है । फिर एकदिन मृत्यु को आलिंगन कर न जाने किस जहाँ में खो जाती है। इस तरह जीवन-मृत्यु का यह सिलसिला अनादि काल से चलता रहा है और चलता रहेगा।

जीवन के बारे में सब से आश्चर्यपूर्ण बात यह है कि कोई प्राणी चाहे वह कितना भी कष्टपूर्ण स्थिति में क्यों न हो ,मरना नहीं चाहता है । सभी जीव-जन्तु निरंतर  अपनी रक्षा करने में लगे रहते हैं । लेकिन यह संसार है । हर वलिष्ठ प्राणी अपने से कमजोर पर हावी हो जाता है या होना चाहता है । वन्य जीव-जन्तु एक-दूसरे का शिकार कर ही जीवित रहते हैं । लेकिन मनुष्य में सोचने-समझने की शक्ति भगवान ने दी है । हम कुछ करने से पहले उसके परिणाम पर विचार सकते हैं । लेकिन सामान्यतः लोग ऐसा कर नहीं पाते हैं । वे अपने हितों के बारे में तो बहुत संवेदनशील रहते हैं लेकिन दूसरे के प्रति दुराग्रहों से भर जाते हैं । ऐसा क्यों होता है? इसलिए क्यों कि हम निषेधात्मक प्रवृतियों से घिर जाते हैं । हमारे सोच की दिशा ही भविष्य का द्वार निर्धारित करती है। दूसरों के प्रति ईर्ष्याभाव से ग्रसित रहकर हम सुखी कैसे हो सकते हैं? हो ही नहीं सकते है । यही कारण है कि आज के युग में इतना तनाव है । लोक आत्महत्या करते हैं और बात-बात में,मामूली विवादों में दूसरों की जान लेने में भी बाज नहीं आते हैं ।

यह महत्वपूर्ण नहीं है कि हम कितना जीते हैं । कुछ लोग कम दिन जी कर ही अमर हो गए । आदि शंकराचार्य वत्तीस साल के उम्र में ही परलोकवासी हो गए परंतु इतने कम उम्र में ही उन्होंने भारत के आध्यात्मिक जगत को झकझोर दिया । देश में चार शंकाराचार्य पीठों की स्थापना की । स्वामी विवेकानंद भी कम उम्र में ही स्वर्गवासी हो गए परंतु सायद ही कोई दिन होगा जब अभी भी उनको लोग याद नहीं करते होंगे और उनके ओजस्वी प्रवचनों से लाबान्वित नहीं होते होंगे । जो बात वे कह गए वे आज भी पूर्ण प्रासांगिक हैं और जीवन में मार्गदर्शक का काम कर रहे हैं ।

जब भी हम सकारात्मक सोच से जुड़ते हैं तो हम जीवन से करीब हो जाते हैं । सही माने में हम प्रकृति में चतुर्दिक विद्यमान सौंदर्य का आनन्द उठाने में सक्षम हो पाते हैं । मेर और तेरा का चक्कर समाप्त हो जाता हे। हम चाहने लगते हैं कि हमारे आस-पास के सभी लोग सुखी हों। वसुधैव कुटुम्वकम् सही माने में तभी चरितार्थ हो पाता है । ठीक इसके विपरीत  हम जैसे ही निषेधात्मक तत्व जैसे अहंकार,क्रोध,ईर्ष्या आदि को अपना लेते हैं तो हम अपने जीवन में स्वयं ही विष घोल रहे होते हैं । ऐसा नहीं होता है कि आप अकेले सुखी रहें,आपको दुनिया की सारी उवलव्धियाँ मिले और दूसरे हाथ पर हाथ धरे रह जाँए । चतुर्दिक सच्चा सुख तो तभी मिल सकता है जब हमारे आसपास सभी सुखी हों,सब अपने लक्ष्य को प्राप्त करें । इस तरह जीवन में ही हम अपने स्वभाव के अनुसार अमृत और विष उतपन्न कर लेते हैं ।

सारांश यह है कि जीवन काफी लंबा हो उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि वह अर्थपूर्ण हो । तभी जीना सार्थक है। तभी जीने का सही आनंद हम ले सकते हैं ।




मंगलवार, 4 जून 2019

ईश्वर यहीं है


ईश्वर यहीं है 



सेवा निवृत्ति के बाद मदन घर वापस आया था । चालीस साल उसने सरकारी सेवा की थी । इस लंबी अवधि में उसने बहुत कुछ देखा,भोगा । लेकिन नौकरी में व्यस्तता के कारण सब कुछ भूलता रहा । आज पहली बार उसे खाली-खाली लग रहा था । अपने छोटे से घर के बरामदे पर बैठे हुए वह  रह-रहकर अतीत में खो जाता था । इस तरह  सोचते-सोचते घंटों निकल गए । एकाएक उसका ध्यान सामने चिल्ला रहे व्यक्ति की आवाज से टूट गया-

"वर्तन ले लो । पुराने को नए से बदलो .... । ऐसा मौका फिर कभी नहीं मिलेगा ।" उसने अपनी साइकल पर ढेर सारे वर्तन लाद रखा था और खुद पैदल चलते हुए साइकल को खींच रहा था ।

इस उम्र में इतनी मेहनत क्यों करते हो?"-मदन ने पूछा ।

" पेट के लिए सबकुछ करना पड़ता है ।"

"तो क्या तुम अकेले हो?"

"अकेले रहता तब यह सब क्यों करता? मथुर-वृंदावन जाकर रह लेता ।"

"फिर कौन-कौन है तुम्हारे साथ?"

यह  प्रश्न सुनकर वह गंभीर हो गया , चुपचाप आकाश की ओर देखने लगा । सायद मदन ने उसके दुखते नस पर हाथ रख दिया । मदन ने कुछ और पूछना उचित नहीं समझा । थोड़ी देर बाद वह स्वयं संयत होते हुए कहने लगा-

" घर में विकलांग माँ है और मैं हूँ । अगर मैं काम नहीं करूंगा तो उसकी देखभाल कौन करेगा?

बातचीत के दौरान  उसे  लगने लगा जैसे कि उसे कभी पहले देखा है ।

"मुझे लगता है मैंने आप को पहले भी देखा है ।" -मदन ने कहा ।

"मुझे भी यही लगता है । "

"आपका नाम क्या है?"

"गोलू"

गोलू नाम सुनते ही मदन  उछल पड़ा । बचपन में सायद ही कभी होता हो जब वे स्कूल में साथ-साथ न खेले हों। गोलू पढ़ने में ठीक नहीं था । परंतु खेल में सबसे आगे रहता था ।

" मैं हूँ मदन।"

"अरे! विश्वास ही नहीं होता है कि इतने दिनों बाद तुम से मिल रहा हूँ । "

मदन दौड़कर घर  से कुछ खाने का समान और पीने के लिए पानी ले आया । फिर कहने लगा-

"बैठ जाओ । पानी पी लो । "

इस तरह का आवेश उससे किसी ने आजतक नहीं किया था । सो वह मना नहीं कर सका । मदन को भी उससे बातें करते हुए कुछ समय कट गया ।

"अपना हाल-चाल बताओ।"

"मेरे एक ही लड़का है। पढ़ाई-लिखाई करने के बाद नौकरी करने विदेश गया और वहीं बस गया । मेरी पत्नी कुछ साल पहले चल बसी । वह अंतिम समय तक यही कहती रह गई कि उसके बच्चा आता ही होगा, वह जरूर आएगा । उनसे मिले बगैर वह नहीं मरेगी । पर वह नहीं आया और एक दिन मेरी पत्नी बिना किसी से मिले चली गई । "

"यह तो बहुत गलत हुआ । क्या आपने उन को खबर नहीं किया?"

"किया कैसे नहीं । "

"फिर क्या कहा उस ने ।

" आज-कल करता रहा, परंतु आ नहीं सका ।

इस तरह थोढ़ी देर बातचीत के बाद गोलू उठकर चल दिया । फिर वही आबाज.ले लो...............। मदन अकेला बरामदे पर बैठा रहा । उसके मनमें बार-बार  अपने पत्नी की याद आती रही जो अंतिम क्षण तक पुत्र की प्रतीक्षा करते हए चली गई । अब वह अकेला यहाँ रहकर क्या करेगा? किस से अपने मन की बातें कहेगा । सो उसने सोचा -"क्यों न वृंदावन चलूँ । वहीं भगवान के शरण में समय बीत जाएगा । " दूसरे दिन सुबह होते ही वह गाँव से वृंदावन के लिए निकल पड़ा ।

वृंदावन पहुँच वह एक आश्रम में रहने लगा । धीरे-धीरे वहाँ उसकी जान-पहचान कई साधुओं से हो गई । उसका अधिकांश समय भजन-कीर्तन में बीतने लगा । एकदिन सुबह-सुबह यमुना किनारे बैठे मदन भजन कर रहा था कि फिर वही आबाज सुनाई पड़ी-"ले लो,ले लो,ऐसा मौका फिर नहीं मिलेगा....."

आबाज सुनकर मदन चौका । चिल्लानेवाला उसका वचपन का दोस्त गोली ही था  । मदन को देखते ही कहने लगा-

" माताजी की इच्छा वृंदावन जाने की थी । इसलिए उनको साथ लेकर आ गया । "

"यह तो बहुत ही अच्छा किया तुमने । हमारे आश्रम में चलो । हम लोग साथ- साथ रहेंगे और सुबह-शाम भजन-कीर्तन करेंगे ।"

"माताजी तो वापस अपने गाँव जाना चाहती हैं ।"

"क्यों?"

गाँव से आने के बाद मैंने माताजी को एक मंदिरमे भगवान के दर्शन के लिए ले गया । वह मंदिर में प्रवेश करने ही वाली थी कि मंदिर का पुजारी एक भिखारी को जोर से दे मारा ।"

"क्यों?"

"क्यों कि एक भक्त ने उसे अपने जेब से किछ पैसे निकालकर देना चाहा । पुजारी को यह अच्छा नहीं लगा । उसे सायद लगा कि उस पैसे पर तो मात्र उसी का हक है क्यों की वही  इस मंदिर का पुजारी है । इसलिए ही वह भिखारी पर चिल्ला उठा । इस दृष्य को देखकर मेरी माता बहुत दुखी हो गई । मुझे तुरंत गाँव वापस होने के लिए कहने लगी ।"

" असली भगवान तो गाँव में ही हैं । वे दुखी, विमार, असक लोगों के हृदय में बसते हैं । -मेरी माता बोली ।

मदन ने बहुत मनाया कि वह थोड़ी देर रूक जाए । परंतु उसकी माता तुरंत वहाँ से गाँव लौट जाने के लिए अड़ गई । और वे वृंदावन छोड़कर अपने गाँव वापस चले गए ।

मदन की आँखे खुल गई । वह तुरंत अपने गाँव लौट गया । वहाँ लौटकर उसने एक अस्पताल का निर्माण करबाया । उसने अपनी सारी संपत्तियाँ अस्पताल में दान कर दी और स्वयं दिन-रात अस्पताल आने वाले मरीजों की सेवा में लग गया । इस तरह गरीब मरीजों की सेवा कर उसे लग रहा था कि उसने सचमुच ईश्वर पा लिया है ।