पंक्षी और मानव
ये पंक्षीगण,
फरफराते पंख अपने,
नहीं है कुछ भी उनके पास,
अट्टालिकाएँ या बैंक में खाता ।
न ही कोई करता इनकी परबाह,
न कोई कह उठता बाह बाह
जब वे अपने कलरव से,
चतुर्दिक भर देते उत्साह ।
सुनाकर नित मधुरिम संगीत,
कर देते सब को मस्त ,
और स्वयं भी रहते हैं अलमस्त।
और हम, पता नहीं क्यों ?
हमेशा रहते अस्त -व्यस्त,
अकारण चिंतित शोक संतप्त ।
सोचने में भी करते लाज,
कि क्या है,
उस मस्ती का राज ?
१.५.१९८३