गुरुवार, 17 मई 2018

पंक्षी और मानव


पंक्षी और मानव



ये पंक्षीगण,

फरफराते पंख अपने,

नहीं है कुछ भी उनके पास,

अट्टालिकाएँ या बैंक में खाता



न ही कोई करता इनकी परबाह,

न कोई कह उठता बाह बाह

जब वे अपने कलरव से,

चतुर्दिक भर देते उत्साह



सुनाकर नित मधुरिम संगीत,

कर देते सब को मस्त ,

और स्वयं भी रहते हैं अलमस्त।



और हम, पता नहीं क्यों ?

हमेशा रहते अस्त -व्यस्त,

अकारण चिंतित शोक संतप्त ।

सोचने में भी करते लाज,

कि क्या है,

उस मस्ती का राज ?



१.५.१९८३

अनुत्तरित प्रश्न ???






अनुत्तरित प्रश्न ???



आमंत्रित हुआ हूँ,मैं बार-बार

उत्तर देने के लिये,

वही प्रश्न-

जो है गूढ़ और गंभीर

श्रिष्टि के आदिकाल से,

जिस पर चल रहा है विवाद,

और समाधान आजतक हो नही सका



प्रश्न हे आज भी अनुत्तरित,

कैसे और क्या दे सकता था ?

उत्तर उन प्रश्नों का।

प्रयत्न तो किया था, कर भी रहा हूँ,

कि सोच लूँ,

अपने लिये ही सही,

कोई भी समाधान



पर मैं यह भी नहीं कर सका ,

विवाद जो जुड़ा है,

मनुष्य की अस्मिता से, चलता ही रहेगा ।



जबतक रहेगा यह समाज,

और स्वनिर्मित इसकी मान्यताएँ

लोग इसी तरह रहेंगे,

 किंकर्तव्यविमूढ़, समस्याग्रस्त

स्वनिर्मित सीमाओं को, नियमो,प्रतिवंधो को,

तोड़ने के लिये, विवश और कृतसंकल्प ।

४.१०.१९९३

आकाश का मौन


आकाश का मौन

किस दुख से आहत युग- युग से,

मौन सतत रहते हो ?

क्या कारण है,

 कहो गगन क्यों, दूर-दूर रहते हो ?



हे आकाश कहो शोकित क्यों,

तेरा चिर जीवन है ।

क्या मानव की दशा देखकर,

व्याकुल अन्तर्मन है ।



ज्योतिर्मय आँचल तेरा,

शशि सूर्य सतत करते हैं ।

इन्द्रधनुष  बन अलंकरण,

भासित तुझको रखते हैं ।



रंगे विरंगे परिधानो से,

वादल तुझको सजता है,

फिर भी क्यों आंगन तेरा,

सूना सूना लगता है ।



क्षितिज पार सागर से मिलकर,

क्या बातें करते हो ?

किस दुख से आहत युग-युग से,

मौन सतत रहते हो ।



(सन १९८१)