आत्मभय
जरूरी नही कि
हम जो देखते हैं वह वैसा ही हो,
हमारा अन्तर्मन घटनाओं का
कर देता है रुपांतरण ,
अपने हिसाब से
और अंततः सामने होता है
हमारे ही पूर्वाग्रहों का प्रतिफल।
कई बार छाया को
हम मान लेते हैं असलियत
और हम अपने मन में
पहले से ही व्याप्त भय के वशीभूत
करते हैं पलायन सत्य से,स्वयं से
क्यों कि सत्य स्वीकार नहीं सकते
और असत्य का कोई आस्तित्व होता ही नहीं
इसलिए
जबतक हम समझ पाते हैं
सत्य की मर्यादा और असत्य की व्यर्थता
तबतक समीप होता है जीवन का अंत
चारों तरफ होता है अज्ञानता का सम्राज्य
परंतु अहंकारवश,
हम ढूंढ़ते रह जाते हैं
उसी को
जो है आस्तित्वहीन ,
फिर कहते हैं
त्राहि माम्,त्राहि माम् !
कहीं भी नहीं रह जाता है कुछ भी अवशेष
अंदर से बाहर तक विस्तृत
अनंत शून्य में
हम रह जाते है अकेले,विल्कुल अकेले
अपने ही कृत्यों से भयभीत ।
दिग्भ्रमित
असत्य को मान लेते हैं सत्य
फिर पूछते हैं-
“मै कौन हू?”
और तबतक बहुत देर हो जाती है
अब तो हमारी छाया भी
हमारा साथ नहीं देती है।
असल में भय का कारण कोई और नहीं
हम स्वयं हैं।
आज हम जो भी हैं
सब हमारे ही चिंतन के प्रतिफल हैं,
हमारे ही पूर्वकृत कर्म
हमारा भविष्य बन है उपस्थित।
जिनका कोई आस्तित्व भी नहीं
कभी था ही नहीं,
हम उसी में आसक्त
और आत्मभय से त्रस्त
ढूंढ़ते रह जाते हैं,
अपनी अस्मिता,अपनी पहचान
और जीवन का अर्थ।
रबीन्द्र
नारायण मिश्र
१६.५.२०२०
mishrarn@gmail.com