यशोलिप्सा
गाँव का मजदूर हो या शहर का बाबू
सभी अपनों के बीच शान- सौकत में रहना चाहते हैं
आस-पास अपना प्रभाव छोड़ जाना चाहते हैं ।
ऐसे ही मेरे गाँव वापस आया था एक मजदूर
जीवन भर उठापटक कर कुछ पैसे कमाया था
गाँव में सेखी बघारने का कोई अवसर छोड़ता नहीं था
कभी- कभी तो बेबजह चिल्लाता था
ताकि लोग समझ लें कि वह गाँव आ चुका है ।
और वह भी कुछ है
किसी से कम नहीं ,ज्यादा है ।
उसका हो पूरा मान-सम्मान
लोग उसके साथ आदर से पेश आएं
देखते ही अदब से मुस्कराएं
और नहीं तो उसके हाँ में हाँ मिलाएं ।
वैसे उसकी हैसियत अब भी कोई खास नहीं थी
परंतु,जो कुछ था सो वही पचा नहीं पा रहा था ।
असल में दूसरों पर छा जाने की इच्छा
नया नहीं है
युग-युग से लोग इसी कारण
आपस में जूझते रहे
छोटी-छोटी बातों पर युद्ध तक करते रहे ।
वरना क्यों होता महाभारत?
क्यों होता इतना नरसंहार ?
यदि दुर्योधन छोड़ देता अहंकार
पाण्डव नहीं करते व्यर्थ ही प्रदर्शन
नव निर्मित माया महल का,
वे यद्यपि बन चुके थे नृप
लेकिन चक्रवर्ती होने का लोभ था
युद्ध तो जीत गए
परंतु, अपने से हारते चले गए
परिणाम कितना भयावह था?
इसलिए कहता हूँ
मत पड़िए यशोलिप्सा में
यह है दुखद और अत्यंत घातक
अंत-अंत तक पीछा करती है
और आप परेसान रह जाते हैं ।
हम सुखी रहते हैं तभी तक
जबतक किसी और पर निर्भर नहीं हैं
जैसे ही हम करने लगते हैं उमीद
कि कोई करे तारीफ
हम अपने आप को किसी और के हबाले कर देते हैं ,
और वहीं से शुरु हो जाता है हमारे कष्टों की शृंखला
हम दुसरों के मूल्यांकन को देते हैं तरजीह
और इस तरह गवाँ देते हैं अपना सबकुछ
सुख,शांति और आत्मसम्मान भी ।
मत करिए परवाह
कि कौन क्या सोचता है आपके लिए
आप जो हैं सो हैं
आप सत्य थे,हैं और रहेंगे ।
फिर किस बात का करते रहें बबाल
क्यों दूसरे के चक्कर में नष्ट कर लें
अपना सुख,शांति
क्यों खोकर अपनी मौलिकता
ब्यर्थ करें आडंवर?
छोड़िए इन बातों को
क्या धरा है इस सब में ?
खुद को पहचानिए
तभी मिलेगा विश्राम
चिरंतन शांति ।
भूल जाइए सारे वैमनस्य के भाव
सब अपने ही लगने लगेंगे
और आप रह सकेंगे प्रसन्न
बिना किसी यत्न के ।
लोग क्या कहेंगे?
लोग क्या करेंगे?
हमारे बारे में कौन क्या सोचता है ?
जबतक इनबातों में उलझे रह जाएंगे
तबतक इच्छाएं आकार लेती रहेंगी
और हम घुमते रह जाएंगे ।
हम वैसा कुछ करें
जिस से
लोगों में हमारी शान हो
सब हमारे पीछे दौड़ते रहें
चारो तरफ फैल जाए हमारा नाम
बस इसी सब में हम लगे रह जाते हैं ,
यश की लिप्सा बढ़ती ही जाती है
हम सब कुछ कर लेते हैं जो हमारे वश में था
जिस से हमारी प्रशंसा हो
लोगों में जयगान हो
परंतु यहाँ क्या रहा है असालतन?
कुछ भी नहीं
हम खुद भी नहीं,
एकदिन चले जाते हैं अकेले
सबको छोड़कर
फिर न तो यश होता है न अयश
बाजार की तरह सब कुछ उजड़ जाते हैं ।
आखिर यशलिपसा है क्या?
बस एक नशा मात्र
और कुछ भी नहीं,
इसी चक्कर में कितने गवाँ चूके प्राण
धन,स्वास्थ्य और संतति
अंततः रह गए निराश ।
कारण लिप्साओं का कोई अंत है ही नहीं
चाहे वह धन का हो
मान का हो
या यश का हो ।
रबीन्द्र
नारायण मिश्र
२२.५.२०२०
mishrarn@gmail.com