चिंता
अनिष्ट की आशंका से,
अज्ञात के प्रति अविश्वास
अपरिचित से भय
प्राप्त के खो जाने से
हम रहते हैं त्रस्त
डरते हैं खुद से ,परिवेश
से
बाँटते नहीं सुख-दुख
और रहते हैं
दुखी और संतप्त
।
मन के अनुकूल न होने पर
स्वीकार कर नहीं पाते
प्रतिकूलता में सहज रह नहीं पाते
जो प्राप्त है सो पसंद नहीं
और जो पसंद है वह पा नहीं सकते
अकसर समय पर सही निर्णय ले नहीं पाते
फिर भाग्य को कोसते रह
जाते हैं।
जो मेरा है ही नहीं
या जो चला ही जाना है
उसपर क्या सोचना है?
इन व्यर्थ की बातों में उलझकर ही
हम रहते हैं चिंताग्रस्त
हम इस से हों
मुक्त
मन हो स्वच्छंद
प्रभु में विश्वास कर
कर्तव्य पथ पर चल पड़े
जो कर सकते हैं सो करें
शेष उनपर छोड़े देना चाहिए।
व्यर्थ चिंता छोड़कर
निश्चिंत जीना चाहिए
।