मैथिलीमे हमर प्रकाशित पोथी

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शनिवार, 26 जनवरी 2019

फिर मोदी ही क्यों?


फिर मोदी ही क्यों?



२०१९ के लोकसभा का आम चुनाव दस्तक दे रहा है । सभी पार्टियां ताल ठोक रही हैं। तरह-तरह के समाचार नित्य अखबार और सोसल मिडिआ में सुर्खी बटोरने लगी हैं । नित्य टीवी चैनलों पर तरह-तरह की चर्चाएं हो रही हैं। लोकतंत्र के लिए इस से शुभ क्या हो सकता है कि देश में यत्र-तत्र समय से पहले से ही आगामी सरकार के गठन और संरचना पर देशव्यापी चर्चा हो? पर सोचने की बात यह है कि इन तमाम चर्चाओं का निहितार्थ क्या है ? जो प्रस्ताव जनता के सामने राजनीतिक दलों ,नेताओं द्वारा किए जा रहे हैं क्या वे भारतीय गणतंत्र के लिए सचमुच शुभ होंगे? क्या हम विश्व में एक सम्मानित देश के नागरिक के रूपमें अपने को खड़ा कर सकेंगे? निश्चय ये सबाल हमारे मन में आ रहे होंगे और अगर नहीं आ रहे हैं तो भी हमें सोचना चाहिए कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? जिस तरह से विपक्षी पार्टियां नित्य नये तौर-तरीके लगाकर वर्तमान मोदी सरकार के पतन के लिए कटिवद्ध दिख रही हैं क्या वे सचमुच उचित है ,देश के लिए लाभदायी है?
लोकतंत्र में विपक्ष का अपना महत्व है । उन्हें सरकार के खिलाफ विचार रखने का पूरा हक है । सरकार अगर कहीं गलत है तो उसे स्पष्टता से बताया जाना ही चाहिए । परंतु  मात्र विरोध के लिए विरोध करते रहने से देश वा जनता का कुछ भी  लाभ संभव नहीं है । देखा जा रहा है कि सरकार जो कुछ करती है, विपक्षी दल खासकर कांग्रेस पार्टी उसके खिलाफ बोलने लगते हैं । इसका कोई अच्छा प्रभाव  जनता में नहीं होता है । लोक सोचते हैं कि ये लोग तो ऐसे ही बोलते रहते हैं । फिर इनके बातों पर माथापच्ची क्यों किया जाए?सरकार का विरोध करने और हो-हल्ला करते रहने की विमारी इस कदर फैल चुकी है कि शायद ही किसी दिन संसद चल पाता है। आखिर इतने खर्च कर देश के गरीब जनता के पैसे से चल रहे संसद का समय इस तरह वर्वाद करते रहना कहाँ तक उचित है? संसद  होता ही है चर्चा के लिए । सभी पक्ष अपना विचार विधि संम्मत तरीके से रखें ,सरकार को उसकी त्रुटिओं के तरफ ध्यान खीचें और जरूरी पड़ने पर और उचित बहुमत होने पर लगातार गलत कर रहे सरकार को बहुमत द्वारा अविश्वास प्रस्ताव पास कर बदल दें । जब संविधान द्वारा इतने अधिकार एक सांसद को प्राप्त है तो यह कहाँ तक उचित है कि आये दिन संसद में हंगामा होता रहे,बात-बात में संसद की बैठक स्थगित हो जाए और जनता मूकदर्शक बना रहे?
लोकतंत्र में विपक्ष की अपनी भूमिका होती है । लेकिन यह भूमिका मात्र हो-हल्ला कर लेने से  पूरा नहीं हो सकती है । सरकार बदलना भी लोकतंत्र की सार्वभौमिकता को सिद्ध करती है । चुनाव से पूर्व भी लोकसभा में सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव बहुमत से पारित कर सरकार को हटाया जा सकता है । जनता चाहे तो चुनाव के समय मतदान द्वारा  ठीक काम नहीं करने बाले सरकार को बदल दे । ऐसा कई बार हो भी चुका है । जब श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार से लोग नाराज हुए तो उसे चुनावमें बुरी तरह पराजय का मुँह देखना पड़ा । विपक्ष के तमाम नेता आपत्तिकाल में में  बंद थे । देश में नागरिकों के सारी लोकतांत्रिक अधिकार छीन लिए गये थे । स्वर्गीय जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में सभी विपक्षी दल इंदिरा गांधी को हराने के लिए एकजुट हुए । जनता दल के नाम से एक नये दल का सृजन हुआ जिस में जनसंघ सहित कई विपक्षी दल शामिल हुए । इंदिरा गांधी चुनाव हार गई । देश में नयी सरकार मोरारजी भाई के नेतृत्व में बनी । सरकार बन तो गई पर चल नहीं पाई । कुछ साल बाद ही जनता दल के नेताओं के अहं का टकराव इस कदर बढ़ गया कि जनता दल का विभाजन हो गया । मोरारजी भाई को इस्तिफा देना पड़ा । चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में जो कांग्रेस समर्थित सरकार बनी वह कभी लोकसभा का विश्वास नहीं प्राप्त कर सकी । देश को मध्यावधि चुनाव का सामना करना पड़ा । इस तरह के कई प्रयोग बाद में भी हुए जिस में कार्यकाल पूरा करने की बात तो छोड़िए,कांग्रेस समर्थित सरकार चाहे वह चनद्रशेखर के नेतृत्व में बनी या देवगौड़ा के ज्यादे दिन नहीं चल सकी और देश में मध्यावधि चुनाव कराना पड़ा ।
कहने का तात्पर्य यह है कि मात्र विरोध के लिए विपक्षी दलों का एकत्र होना कोई सार्थक काम नहीं कर पाती हैं। उल्टे इस मौकापरस्ती से बनी सरकार में सिर फुटौअल होती रहती है । प्रधान मंत्री नाम मात्र के प्रधान रह जाते हैं। समर्थक दलों में सभी के पास में  बीटो करने का अधिकार आ जाता है । अगर एक भी समर्थक दल नाराज हो गई तो सरकार गई । इस तरह के आया राम ,गया राम बाली सरकार जनता का क्या भला कर सकती है? कर ही नहीं सकती है। सभी दल अपना स्वार्थ पूरा करने में लगे रहते हैं । उन्हें पता रहता है कि यह सरकार ज्यादा दिन चलने बाली नहीं है, इसलिए जितना हो सके जल्द से जल्द वसूली कर लिया जाए । सोचिए,ऐसी खतरनाक स्थिति एकबार फिेर हम आने देंगे क्या?
वर्तमान में ऐसा लग रहा है कि मोदीजी को हरा देना और अगले बार उन्हें प्रधानमंत्री बनने से रोकना ही सभी विपक्षी दलों का एकमात्र एजेंडा है । इस अभियान में भाजपा के कुछ भूतपूर्व और वर्तमान लोक भी शामिल दिखाइ देते हैं। यह समझ से बाहर है कि मोदी को प्रधानमंत्री पद से हटा मात्र देने से देश की समस्यायों का समाधान कैसे होने बाला है? क्या उन्होंने इन्दिरागांधी की  तरह देशपर आपत्तिकाल लगा दिया है ? क्या अपने कार्यकाल में उन्होंने देश की संप्रभूता की रक्षा करने से नाकामयाब रहे हैं? क्या उन्होंने देश के सरकारी खजाने का इस तरह दुरुपयोग कर दिया है कि देश कंगाल हो गया है? कोई भी निष्पक्ष व्यक्ति कहेगा कि इस सभी में से कुछ भी नहीं हुआ है । देश पहले की तरह या उससे भी ज्यादा सुरक्षित लगता है । दुनयाँ में भारत एक चर्चा का विषय है । शक्तिशाली देश भी अब भारत के खिलाफ जाने से परहेज करते हैं ।  दुनियाँ में पाकिस्तान के साथ खड़ा होने बाला देश शायद ही कोई बचा है । 
आखिर विपक्षी दल ऐसा क्यों कर रहे हैं? आप कह सकते हैं कि विपक्षी दल ऐसा नहीं करेंगे तो क्या सरकार का प्रचार करेंगे? विल्कुल नहीं । उनसे ऐसी अपेक्षा कदापि वाजिब नहीं है । सरकार के गलत नीतिओं के खिलाफ जनता और सरकार का ध्यान उन्हेँ आकर्षित करना ही चाहिए। यदि सरकार जनहित के मामलों की अनदेखी करती है तो उन्हें यह देश को बताना ही चाहिए । परंतु वे ऐसा करने के बजाए जब संसद बैठती है तो शोरगुल करके ऐसी परिस्थिति का निर्माण कर देती हैं कि संसद चले ही नहीं । ऐसा क्यों हो रहा है ? वह भी एकबार नहीं बार-बार हो रहा है । कोई भी समझदार व्यक्ति आसानी से कह देगा कि या तो इनके पास कोई मुद्दा ही नहीं है या ये संसद को चलने देने से वाधित कर सरकार को रचनात्मक काम करने से रोकना चाहती हैं । संभवतः दोनो ही बातें सही हो । कारण इतना हो-हल्ला करने के बाद भी सभी विपक्षी दल देश को यह नहीं बता पा रहे हैं कि वे गठवंधन बनाकर इस सरकार को हरा देने में कामयाब हो भी जाते हैं तो वे लोग देश का शासन किस आधार पर चलाएंगे? प्रधानमंत्री कौन होगा? क्या वे लोक विना किसी नीति के इतने बड़े देशपर शासन कर पायेंगे? और तो और, इस से भी युक्तिसंगत प्रश्न तो यह है कि इस कदर जैसे-तैसे आपस में एकत्रित विपक्षी दलों की भीड़ सत्ता प्राप्त करने के बाद भी एकठ्ठा रह पायेगी या पिछले अनुभवों की तरह  आपस में लड़-झगड़ कर देश को जल्दी ही दोबारा मध्यावधि चुनाव कराने पर मजबूर कर देंगी । जब आप इतने बड़े देश पर शासन करना चाहते हैं तो इन सब बातों की स्पष्टता के साथ समाधान तो होना ही चाहिए । अफशोस की बात है कि कहीं भी भूल से भी इन बातों पर चर्चा नहीं हो पा रही है । होगी भी कैसे? इन्हें तो बस यह फिक्र है कि हाय राम! मोदीजी कहीं दुबारा न आ जांय? इसलिये जैसे-तैसे महागठवंधन बनाकर और क्या- क्या करके मोदीजी को हटाने में लगे हैं।
सबाल है कि इतने बड़े देश में करोड़ो रुपये खर्च कर हम चुनाव क्यों कराते हैं? इसका आशान उत्तर है कि यह एक आवश्यक संवैधानिक आवश्यकता है । देश में केन्द्र और राज्य सरकारों का गठन लोकतांत्रिक तरीकों से हो जिसे संविधान के अनुसार मान्यता प्राप्त हो, इसलिए ही लोकसभा,और राज्यों के विधान सभा का चुनाव कराया जाता है । जरुरी यह है कि चुनाव के बाद देश में एक स्थिर और स्पष्ट सोचबाला सरकार का गठन हो । यह तभी हो सकता है जब सरकार के पास लोकसभा  में पर्याप्त बहुमत हो । अगर एक दल को स्पष्ट बहुमत मिल जाए ,जैसा कि पिछले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को मिला था, तो केन्द्र की सरकार ठीक ढंग से बिना किसी दबाब के अपना पाँच साल का कार्यकाल पूरा करे । समस्या तब आती है जब किसी भी दल को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत नहीं मिले । ऐसी स्थिति में सरकार चलाने के लिए कई दल आपस में चुनाव से पहले वा चुनाव के बाद भी गठजोड़ करते हैं । ऐसे गठजोड़ों का एकमात्र लक्ष्य जैसे-तैसे बहुमत का आकड़ा जुटाना और जुटाए रखना होता है । कई बार तो यह भी देखने में आया कि चार-पाँच सदस्यबाले दल भी अपनी मांग मनबाने के लिए केन्द्र सरकार को ब्लैकमेल करते रहे । जब सरकार स्वयं अपनी हैसियत बचाती फिड़ेगी तो वह देश और जनता की रक्षा कैसे कर पायेगी? यह एक ऐसा सबाल है जिसका उत्तर विपक्ष में महागठवंधन बनाने के लिए प्रयत्नशील दलों को जनता को देना चाहिए, देना ही पड़ेगा।
गठवंधन द्वारा सरकार बनाना और चलाना कैसा होता है वह देश की जनता देख चुकी है,भुगत चुकी है । जब प्रधानमंत्री अपने मर्जी का मंत्री भी नहीं रख सकते तो वे प्रधानमंत्री बेशक हों , संविधान में निहित भावना और व्यवस्था के अनुकूल कार्य नहीं कर रहे होते हैं। होता तो यह है कि सभी घटक दल अपने-अपने मंत्रियों की सूची प्रधानमंत्री को पकड़ा देते हैं जिसे मानना उनकी मजबूरी रहती है ,अन्यथा सरकार  नहीं चल पायेगी। चुपचाप सब कुछ सहते रहो और देश का प्रधानमंत्री बने रहो ,यह कहाँ का सही हो सकता है? ऐसी मिली जुली सरकार में प्रधानमंत्री की हैसियत कई बार दयनीय हो जाती है । यह समझ से पड़े नहीं है कि ऐसी मजबूर सरकार राष्ट्र हित की रक्षा कैसे कर सकती है?
संविधान निर्माताओं ने संभवतः देश में ऐसी परिस्थिति  होगी,ऐसा सोचा भी नहीं था,परंतु अब जब ऐसी संभावनाएं बार-बार हो रही हैं तो  संविधान में संशोधन कर गठवंधन से बननेबाली सरकारों के लिए मापदंड बनाया जाना चहिए । हो सकता है कि ऐसे में सामुहिक कार्यक्रम तय कर एक साथ चुनाव लड़ने बाले दलों के गठवंधन पर दल-बदल कानून को भी लागू कर दिया जाए ताकि समर्थक दल सोझ-समझकर ही सरकार से समर्थन वापस लें । समर्थन वापसी से पूर्व यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए की सरकार  गिड़ने  की स्थिति में बहुमत संपन्न वैकल्पिक सरकार बन सके । अगर ऐसा नहीं होगा तो वारंवार चुनाव होंगे और देश का बेड़ा तो गर्त होगा ही । अभी जो गठवंधन होता आया है उस में जब जो चाहे सरकार से बिना खामिआजा भुगते समर्थन वापस ले ले । सरकार गिड़ जाए और आगे कोई सरकार कैसे बने ,इसपर कोई स्पष्टता तो छोड़िए, कोई संभावना भी दूर-दूर तक नजर नहीं होती है। फिर देश बचे कैसे?पहले कई बार ऐसी दिक्कतें हुई है,सरकारें आई-गई । मध्यावधि चुनाव हुए । फिर भी स्पष्ट बहुमत की सरकार नहीं बन सकी । इस सब के बाबजूद कानून में कोई सुधार नहीं हो सकी जिस से इस तरह की परिस्थिति से बचा जा सके । 
यह एक संयोग ही कहिए कि तीस साल के बाद देश में स्पष्ट बहुमत से श्री नरेन्द्र मोदी जी के नेतृत्व में एक मजबूत सरकार २०१४ के चुनाव के बाद बनी । सरकार पाँच साल का अपना कार्यकाल पूरा करने जा रही है । जनता को यह पूरा अधिकार है कि वह केन्द्र सरकार के कामकाज का लेखा-जोखा करे और अगला चुनाव में इस बात का ध्यान रखते हुए अपना मतदान करे ।
यहाँ यह विचार करने की जरूरत है कि क्या मोदी सरकार ने  पिछले पाँच सालों में ठीक से काम किया?चाहे नोटबंदी हो या जीएसटी कानून,इन सब को लागू करने के लिए सरकार ने मजबूत इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया है । राज्यसभा में अल्पमत होने  और कई विपक्षी दलों द्वारा लगातार वाधा खड़े करते रहने के बाबजूद सरकार ने इन उद्येश्यों की प्राप्ति हेतु प्रयास किए,और सफल रही। अब यह कहना कि नोटबंदी से क्या हुआ,या जीएसटी कानून से अपक्षित लाभ नहीं हो रहा है,उचित नहीं है । इस में कोई शक की गुंजाइश नहीं है कि सरकार के इरादे सही थे । जनता ने इस बात को सराहा भी अन्यथा नोटबंदी के बाद उत्तर प्रदेश में इतना भारी बहुमत से बीजेपी की सरकार नहीं बनती । पाकिस्तानी सीमा के अंदर घुसकर सर्जिकल स्ट्राइक करना कोई मामूली घटना नहीं थी । पाकिस्तान भी परमाणु शक्ति संपन्न देश है । फिर भी सरकार ने जोखिम भरा फैसला लिया और हमारी सेना ने बहादुरी का मिसाल कायम की  जिस से सारी दुनिया में भारत का सम्मान बढ़ा। देश में सरकारी कल्याण योजनाओं में हो रहे भूगतान को आधार से जोड़कर सरकार ने लाखों  फर्जी लाभार्थियों को चिन्हित करने में कामयाबी हाशिल की जिस से करोड़ो रुपये का गलत भूगतान रोका जा सका। राष्ट्रव्यापी स्वच्छता अभियान चलाकर शहर कि तो बात छोड़िए गाँव-गाँव में जो सफाई के प्रति रूझान पैदा हुआ है,इसे कौन नजरअंदाज कर सकता है?
नोटबंदी में क्या हुआ,नहीं हुआ पर इतना तो तय है कि सरकार की मजबूत इच्छा शक्ति का संदेश पूरे देश को मिला कि सरकार राष्ट्र में आर्थिक सुचिता लाने के लिए कटिवद्ध है । क्या इतने बड़े देश में यह काम एक ही व्यक्ति याने श्री  नरेंद्र मोदी कर सकते हैं? कदापि नहीं । उन्होंने मार्ग दर्शन दिया, जोखिम भरा निर्णय लिया और देश में पारदर्शी अर्थव्यवस्था लागू करने का भरपूर प्रयास किया । इतना तो तय है कि इस घटना के बाद पूरे देश में डिजीटल लेन-देन को बढ़ाबा मिला और नगदी कारोबार धीमा हो गया । मोदी सरकार ने भ्रष्टाचार रोकने कि लिए और काला धन को कानूनी प्रकृया के अधीन लाने में कई कड़े फैसले किए ।  नोटबंदी के बाद  सन् २०१६ में बेनामी संपत्ति कानून में किया गया संशोधन उसी दिशा में लिया गया एक सही कदम था ।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ईमान्दार छवि को आघात पहुँचाने के एकमात्र लक्ष्य से श्री राहुलगांधी लगातार राफेल का मुद्दा गरमाये रखना चाहते  हैं, जबकि माननीय उच्चतम न्यायलय ने तमाम बातों पर विचार कर इस सौदे में किसी भी प्रकार से  गड़बड़ी से इन्कार किया है । उचित तो यह था कि जब एकबार उच्चतम न्यायलय इस विषय में अपना निर्णय दे दिया है तो बात वहीं खतम हो जाती । इसके बाबजूद लगातार इस मुद्दे को उछाला जाना क्या सावित करता है? यही कि कांग्रेस पार्टी और श्री राहुलगांधी के पास कोई मुद्दा है ही नहीं और वे सिर्फ भ्रम फैला कर लोकसभा का चुनाव जीत लेने का सपना देख रहे हैं। देश की जनता काफी प्रवुद्ध है और वह इसका सबूत वारंबार देती रही है । नोटबंदी की घोषणा के बाद विपक्ष के सारे नेता इसके खिलाफ बोल रहे थे , परंतु इसके बाद उत्तरप्रदेश के चुनाव में भाजपा प्रचंड बहुमत से जीती । क्या पता महागठवंधन के नेताओं, खासकर श्री राहुलगांधी द्वारा राफेल के मुद्दे पर फैलाए जा रहे भ्रम का फिर वही हस्र हो ।
 अच्छा होता ,अगर श्री राहुलगांधी एवम् महागठवंधन बनाने बाले अन्यदल के नेतागण एक वैकल्पिक सरकार की स्पष्ट रूपरेखा जनता के सामने प्रस्तुत करते । साथ ही वे यह भी बता सकते कि किस प्रकार वे एक बेहतर सरकार दे सकते हैं और उसका मुखिया कौन होंगे? यह सब कुछ नहीं हो पा रहा हैं न होने की उम्मीद लग रही हैं कारण वहाँ तो प्रधानमंत्री पद के दर्जनभर  दावेदार हैं । शायद नाम की घोषणा नहीं होने तक ही वे साथ दिखें,ऐसा लोगों के मन में भाव उत्पन्न हो जाना अस्वभाविक नहीं हैं।
दोकलाम में जिस तरह चीन के दबाब के आगे भारत की सेना अडिग रही,यह बिना मजबूत सरकार के संभव नहीं हो सकता था । अफशोस की बात है कि जब सारा देश इस समस्या से जूझ रहा था और हमारी सरकार और सेना चीन को माकूल जबाब देने में लगी थी तब श्री राहुलगांधी गुप- चुप चीन के राजदूत से क्यों मिले? वहीं नहीं,जब वे मान सरोवर की यात्रा करने गये थे उस दौरान भी वे चीन के मंत्री से मिले । उनका इरादा जो भी रहा हो,परंतु इस तरह की गतिविधि प्रश्नचिन्ह तो खड़ा करता ही है कि आखिर उनको इस मुलाकात की जरूरत क्यों पड़ी और अगर  पड़ ही गई तो सरकार को विश्वास में क्यों नहीं लिया गया?
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश की अखंडता और संप्रभुता सर्वोपरि है । इस उद्येश्य की प्राप्ति के लिए ही हम संविधान सम्मत तरीके से देश के शासन तंत्र की व्यवस्था करते हैं । चाहे कोई भी व्यक्ति किसी भी दल का हो , है तो अपने ही देश का । चाहे सरकार किसी दल या दलों के समूह का हो उसका लक्ष्य देश की अखंडता और संप्रभुता की रक्षा के साथ- साथ देश के सभी नागरिकों का बिना किसी भेदभाव के कल्याण की व्यवस्था करना ही है । अगर ऐसा है तो फिर इतनी कटुता और वाद-विवाद क्या कोई औचित्य नहीं रह जाता है? लेकीन आज-कल ऐसा लग रहा है कि श्री नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के पद से हटाना अंग्रेजों को भारत से हटाने से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है । बिना किसी पूर्व सोच-विचार के आपस में बिरोधी विचार धारा के लोक इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एकजुट होते दिखाई पड़ रहे हैं । मान लीजिए कि वे अपने प्रयास में सफल हो भी जाते हैं तो आगे देश कैसे चलाएंगे? विभिन्न राष्ट्रीय मुद्दोंपर उनका क्या रुख होगा ? क्या  पता वे सब कब आपस में लड़ पड़ेंगे और देश एकबार पिर अनिश्चितता के दौर में पहुँच जाएगा ? महागठबंधन बना रहे दलों को शायद इन बातों का परबाह नहीं है,क्यों कि वे जातीय और धार्मिक आधार पर मतदाताओं की गिनती करते रहते हैं और इस बात से आश्वस्त हैं कि अमुक जाति वा संप्रदाय के मतदाता तो उनके साथ हैं ही । शायद वे यहीं भूल कर रहे हैं ।  देश में युवकों की एक ऐसी प्रवल जनसंख्या मतदाता बन चुकी है जो इन झमेलो में पड़ना नहीं चाहती है । उन्हें शिक्षा चाहिए, नौकरी चाहिए । ऐसे मतदाताओं ने ही पिछले बार मोदीजी में विश्वास व्यक्त कर उन्हेँ असाधारण विजय दिलाया था । कहने का तात्पर्य है कि देश के अधिकांश युवा बहकाबे में आने बाले नहीं हैं । वे जानते हैं कि महागठवंधन करके जैसे-तैसे बनी सरकार बेशक बन जाए पर जनता की भलाई नहीं कर सकेगी । वे तो दिन-रात अपने हितों के टकरावों को सुलझाते रह जाएंगे । फिेर देश का क्या होगा?
 जाहिर है कि मतदाताओं को बहुत सावधानी से निर्णय करना होगा ताकि देश एकबार फिर से कहीं ऐसे ही जगह न पहुँच जाए जहाँ वह २००४ से २०१४ तक थी । जिस दौर में हर सरकार का समर्थक दल अपने को प्रधानमंत्री से कम नहीं आंकता था और उसके दल को आवंटित मंत्री से जो चाहे करबाता रहे,प्रधानमंत्री मूकदर्शक बना रह जाता था। मिली- जुली सरकारों का क्या हस्र हुआ है यह देश से छिपा नहीं है । किस तरह देश को सोना विदेशी बैंक में गिरबी रखने की नौबत आ गई,यह शायद ही भुलाया जा सके । पिछले युपीए सरकार में अनिर्णय पराकाष्ठा पर पहुँच गई थी। सरकारी अधिकारी फाइलों की ढ़ेर पर बैठे रहते थे । घोटाला पर घोटाला  की खबर आम बात हो गई थी । यह भी कहा जा रहा था कि देश का शासन तो असंवैधानिक हाथों से हो रहा है ,आदि,आदि । क्या हम फिर उसी दौर में दोबार वापस जाना चाहेंगे?सरकार चलते रहे,इस हेतु देश को क्या-क्या नहीं झेलना  पड़ा था । घोटाले पर घोटाले होते रहे । फिर भी संवंधित व्यक्ति मंत्री बने रहे । अगर प्रधानमंत्री कुछ करते तो अपनी कुर्सी ही गमा बैठते । फिर भी उस दौर में प्रायः प्रत्येक सजग नागरिक यही कहता था कि प्रधानमंत्री अगर कुछ और नहीं कर सकते हैं तो त्यागपत्र तो दे ही सकते हैं । ऐसा माहौल क्या हम फिर से देखना चाहेंगे? अगर नहीं तो इसका एकमात्र समाधान तो यही दिखता है कि मोदीजी को एकबार फिर मौका दिया जाए ताकि वे अपने बचे हुए योजनाओं को मूर्तरूप दे सकें और देश प्रगतिपथ पर बढ़ता रहे ।

रबीन्द्र नारायण मिश्र

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