मैथिलीमे हमर प्रकाशित पोथी

मैथिलीमे हमर प्रकाशित पोथी

शुक्रवार, 21 अप्रैल 2023

सन् २०१८मे प्रकाशित हमर मैथिली उपन्यास महराज(ISBN: 978-93-5321-395-4)क धारावाहिक पुनर्प्रकाशनक प्रथम खेपः

 महराज

छोट सन गाम पुबारिटोलमे कमला आओर लखनाक सुखी संपन्न परिवार छल। लखना दस बिघा मड़ौसी जमीन जोतैत छलाह। लखनाक एक पैर सदरिकाल खेते-खरिहानमे रहैत छल। हुनकर संपन्नता गामेक किछुगोटेकेँ नीक नहि लगैत छलनि। ओ सभ कैक बेर झूठ-मूठकेँ मोकदमामे लखनाक नाम दए दैत छलाह मुदा ओ जेना-तेना बचैत गेलाह। आस्तिक लोक छलाह। सभमास सत्यनारायण भगवानक पूजा करैत छलाह आ संकटसँ उबारक हेतु हुनकर कृतज्ञ रहैत छलाह।
समय सभ दिन एकरंग नहि रहैत अछि। ओसभ केना-ने-केना लचरि गेलाह। किछु ॠण सेहो भए गेलनि। ओहने दिकदारीक समयमे महराजक लगान नहि दए सकलाह। हुनकर पाछू पड़ल दिआदवादकेँ ई मौका हाथ लगलैक। महराजक ओहिठाम नालिस भेल। लगान नहि देबाक कारण हुनकर सभटा जमीन-जायदाद औनेपौने दाममे नीलाम भए गेल। महराजक सिपहसलारसभ ढ़ोल बजा-बजा कए सभटा जमीन बेचि देलक। लखना एहि आघातकेँ बरदास नहि कए सकलाह आ किछुए दिनमे एहि संसारसँ चलैत बनलाह। हुनकर पत्नी कमला तँ पहिनेसँ अथबल छलीह। चलि-फिरि नहि होनि। पक्षाघातसँ वामअंग बेकार छलनि। लखनाक आकस्मिक देहावसानकेँ ओ नहि सहि सकलीह आ किछुए दिनमे हुनको प्राणांत भए गेलनि।
देखिते-देखिते एकटा जुड़ल-अटल घर उजड़ि गेल। भोजनो दुर्लभ भए गेल । एहन खिस्सा लखनेक नहि छल। गाम-गाम एहिना कतेको लोक महराजी जुलुमक सिकार भेलथि आ जीविते नरकक भोग भोगि रहल छलाह। महराजकेँ कोनो मतलब नहि। पता नहि हुनका किछु बुझलो रहनि कि नहि? की पता हुनकर सिपहसलारसभ मनमानी करैत रहल हो? ककर हिम्मति छल जे महराज लग सिकाइत करत। जे कनीको किछु करत ओहिसँ पहिने ऊपर पहुँचा देल जाइत छल।
लखना ओ कमला मरिओ कए अपन लोक-वेदसँ फराक नहि भए सकलाह। रहि-रहि कए ओ सभ गामेक लगीचमे घुमैत रहैत छलाह। अपन जजातिपर नजरि लगओने रहैत छलाह। हाकरोस करैत रहैत छलाह जे हुनकर संतानसभक अधिकारकेँ अन्यायपूर्वक बेदखल कए देल गेल। मोनमे कतहुँ उमीद रहनि जे कहिओ हुनकर कोनो संतान एहि अन्यायक प्रतिकार करत आ तखने हुनकर आत्माकेँ मुक्ति हेतनि।
यद्यपि ओकरासभकेँ मरला कतेको वर्ष भए गेल मुदा गामक, अपन लोकक मोह ओकरा गाम झिकने आनि लैत छल। गाम आबएकाल ओ देखैत छल जे महराजक महल चारूकात पसरिते जा रहल छल। बड़का-बड़का देबालसभ ठाढ़ भए गेल छल। की-की ने भए गेल छल, मुदा देबालक ओहिकात लोक बेबस छल,जीवितो जीवनक संपूर्ण सुखसँ वंचित छल। कतेको लोककेँ हार-पाँजर एक भेल छल। से सभ देखि कए ओ आओर दुखी भए जाइत छल,कैक बेर ठोहि पारि कए कानए लगैत छल। तथापि ओ गामक मोह छोड़ि नहि पाबि सकल छल।
एहिना एकराति ओसभ अपन गाम दिस जेबाक इच्छुक छलाह। कमला बजलीह- "चलू ने अपन गाम?”
“पता ने आब के-के हेताह? कोन रुपमे गाम होएत? ककरो चिन्हबो करबैक कि नहि? आ फेर जौं किछु उल्टा-पुल्टा समाचार भेटि गेल तँ अनेरे दुखमे पड़ि जाएब।" -लखना बाजल।
“एतेक केओ सोचए? हमरा लोकनि छी प्रेतात्मा। बौआएब तँ अपन सभक कपारेमे लिखल अछि?"
“ऐं! की कहलिऐक?"
“ध्यान कतए अछि?"
“ऐ! इएह अपनसभक घर लगैत अछि। लगीचमे चभच्चा देखि रहल छी। मुदा हरिक घर नहि देखा रहल अछि?"
“हमरातँ बहुत चीज नहि देखा रहल अछि? फुलबाड़ी जकरा हम दिन-राति पानि दैत रहैत छलहुँ कहाँ अछि? ओलार जतए महिस बन्हाइत छल ओहो निपत्ता अछि। कतेको नव-नव घर देखि रहल छी। कहीं दोसर गाम तँ नहि आबि गेलहुँ?"
“धुत् तोरीके। सुनैत नहि छिऐक के खोखसि रहल छैक?"
“के छैक?"
“किछु देखा नहि रहल छैक? मुदा खोखसबाक अबाज तँ आबि रहल अछि।"
“से तँ सत्ते।"
“मुदा छै की।"
“रातुक अर्धपहर छैक। किछु भए सकैत छैक? की पता कोनो आओर प्रेतात्मा घुमि रहल होइक? जिन होइक,ब्रह्म पिशाच होइक,तेँ सावधाने रहब।"
"बात तँ सही कहि रहल छी, किछु संभव अछि।"
अबाज बढ़िते गेल। ठन..ठन...झम..झम...।"
“हमरा डर लगैत अछि...।"
“प्रेतो भए कए डर लागि रहल अछि?"
“इएह तँ एहि जोनिक विशेषता अछि जे एतए सभ किछु अपने-आप होइत रहैत अछि। अहाँ तँ आब पुरान भेलहुँ। ई सभ बूझल हेबाक चाही।"
“दाइ गे दाइ...। ई के अछि...। नमगर-नमगर हाथ बढ़ओने जा रहल अछि।"
“थम्हु, टार्च बारि रहल छी।"
“टार्च कतएसँ आएल?"
“बड्ड अपाटक छी। श्राद्धमे दान भेल रहैक से बिसरा गेल?"
ढन-ढनकेँ अबाज बढ़िते गेल। कनी कालमे बड़ी जोड़केँ अन्हड़ आएल आ सभ किछु उड़ा कए लेने चलि गेल।
“भागू-भागू, केओ पछोड़ कए रहल अछि...।"
आओर दुनू गोटे बिला गेल।
राति भरि कमला ओ लखना गामक लगीचमे घुमैत रहि गेल मुदा नीचाँ नहि उतरि सकल। लगैक जेना कोनो प्रचंड शक्ति ओकरासभकेँ रोकि रहल अछि। किछु देखा नहि रहल छलैक। दुनू गोटेक मोन औनाए लगलैक। एहन तँ कहिओ नहि भेल छल। देखल-सुनल गामक रस्तामे ई की सभ भए रहल छैक? दुनू गोटेक चिंता एकहि बातक रहैक, जे आखिर ओकर वंशजसभ केँ कोनो संकट तँ नहि आबि गेल? एहिबातसँ ओसभ व्यग्र छल।
“कैक बेर कहलहुँ जे आब गाम-घरकेँ बिसरि जाउ। ओहिठाम आब की राखल छैक? तीन पुस्त गुजरि गेल। अपनासभकेँ के चीन्हत? मुदा अहाँक मोन मानिते नहि अछि।" -लखना कहलकै।
"बुझै तँ छीऐक मुदा मोन नहि मानैए" -कमला बाजलि।
“प्रेत जोनिमे हम अहाँ छी। एतए लोक अपन मोनक किछु नहि कए सकैत अछि। भूख- प्यास सभ लगैत अछि मुदा समाधान कथुक अपना हाथमे नहि अछि।"
“से तँ छैक मुदा बौअनकेँ बिसरि नहि पाबि रहल छी।"
"अहाँकेँ ई की सभ फुराइत रहैत अछि? के थिक बौअन?"
"सएह कहू, बौअन बिसरा गेल?"
"हमरा किछु मोन नहि पड़ रहल अछि?"
“बहुत आश्चर्यक गप्प थिक जे लोक अपनो संतानकेँ बिसरि जाइत अछि।”
“बिसरि नहि जाइत अछि, बिसरा जाइत छैक। ई मृत्युलोक नहि छैक, प्रेतलोक छै।”
ओकरासभकेँ गप्प-सप्प होइते रहैक कि लगलैक जेना ठनका खसि रहल छैक। अन्हड़ उठि रहल छैक। चारूकात भयाओन ध्वनि सन्न-सन्न कए पसरि रहल अछि।
"भागू, भागू।"
"की भेलैक?"
"सुनि नहि रहल छिऐक?"
"की छैक...?
ओ एतबा बाजले छलि कि मखना सामने प्रकट भेल- “गोर लगैत छी।"
“के छह?' -लखना पुछलकैक।
"हम छी कालू भगताक भाए, मखना।"
से कहि आगू बढ़ि गेल। ओ मृत्युलोकसँ ककरो प्राण घिचने जा रहल छल। यमपाश भजैत हरहराइत आगाँ बढ़ल जा रहल छल कि कमला ओ लखना हाकरोस करैत देखाएल रहैक।
(क्रमशः...)
रबीन्द्र नारायण मिश्र

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