विश्वास
मनुष्य कभी भी
सायद नहीं रहा इतना संकटग्रस्त
जितना आज है ,
घर में भी हम हैं असुरक्षित
आखिर क्यों?
इसलिए कि
हम हो गए अतिशय भौतिकतावादी ।
जैसे-तैसे सुख करो,
छीन लो दूसरों का हक
चाहे जितना भी करना पड़े अन्याय
समग्र पृथ्वी पर कर लो एकाधिकार ।
परंतु इस सब का परिणाम
कौन भुगत रहा है?
हम सभी ठगे महसूस कर रहे हैं
अनीति से अर्जित धन
ला रहा है दूध के बदले जहर
हवा के बदले प्रदूषित वायुमंडल
स्कूलों मे संस्कार देने के बजाए
निर्दोष वच्चों में भरा जा रहा है घृणा के बीज
फैलाए जा रहे नफरत ।
ऐसे माहौल में
कहाँ से विकसित हो सकता है आपसी विश्वास?
स्वार्थवश गला घोंटने को
तत्पर हो जहाँ अपने ही लोग
ताज्जुब है कि फिर भी वे
ढूंढ़ रहे है सुकून,
लेकिन बिना आपसी विश्वास के
यह संभव है कहाँ?
इसीलिए तो,
बड़े -बड़े महल बनाकर भी लोग बेचैन हैं
इधर-उधर भाग रहे हैं,
ढूढ़ रहें हैं शांति
जो कहीं अन्यत्र है ही नहीं।
फिर भी लोग क्षण-प्रति क्षण
शक के समुद्र में हैं आत्मलीन
और कह रहे हैं,
मुझे चाहिए और कुछ भी नहीं,
केवल शांति
परंतु यह कैसे संभव है?
विश्वास कोई वस्तु नहीं है
कि
इसे कहीं खरीद लें ,
या प्रयोग कर फेक दें ।
यह तो है तप से विकसित पुष्पवृक्ष,
जिस पर खिलते हैं
सुख,शांति और स्मृद्धि के फूल ।
रबीन्द्र
नारायण मिश्र
७.५.२०२०
mishrarn@gmail.com