प्रकृति
आश्चर्यों से भरा हुआ है । उनमें एक हमारा-आपका जीवन भी है ।
छोटे से छोटे और बड़े से बड़े प्राणियों में जीवन के सारे तत्व प्रकृति ने भरे हैं
। एक छोटी सी चिटी भी ,पता नहीं कैसे मीठे वस्तुओं की उपस्थिति को तार जाती है । देखते
ही देखते ऐसी वस्तुओं के इर्द-गिर्द चीटियां भर जाती हैं । बरसात के मौसम में
सैकड़ो चीटियां पंक्तिवद्ध होकर चलती रहती हैं और कहाँ से कहाँ पहुंच जाती हैं ।
कहने का तात्पर्य है कि ईश्वर ने तमाम जीव
जन्तुओं को जीने लायक क्षमता दी है । उसके शरीर में वे सारे अवयव दिए हैं जिसकी उसे आवश्यकता है । जैसे जंगली हिंसक
जानवरों को बड़े-बड़े दाँत दिए हैं ताकि शिकार के बाद वे उन्हें खा सकें । अगर
हमें कुछ नहीं दिया है तो इसका मतलब है कि वह हमारे लिए जरूरी है ही नहीं ।
आप कितने
भी विद्वान हों,कतने भी गुणी हों लेकिन यदि आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं है तो आप कुछ भी नहीं कर सकते
हैं । किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जरूरी हे कि आदमी में संघर्ष की क्षमता हो । वह तो तभी होगा जब वह
कठिन से कठिन परिश्रम करने में सक्षम हो । विना परिश्रम के कुछ भी नहीं पाया जा सकता
है । एक-से-एक पद पर पहुँच कर भी लोग स्वास्थ्य के अभाव में असफल हो जाते हैं । कई
प्रतिभाशाली लोग अल्पजीवी हुए जिससे लोग उनके गुणों से उतना लाभ नहीं उठा सके जितना
वे कर सकते थे । इसीलिए हमें स्वास्थ्य पर शुरु से ही ध्यान देना चाहिए । कहते हैं
कि शत्रु और विमारी को कभी हल्के नहीं लेना चाहिए ।
हम वैज्ञानिक
युग में रह रहे हैं । एक समय था जब लोग मामुली विमारी से मर जाते थे । इलाज के नाम
पर संयम और पथ्य के अलावा कुछ भी नहीं था । बुखार हो जाने पर रोगी का खाना बंद करा
दिया जाता था । तरह-तरह के परहेजों से उसे गुजरना पड़ता था । कई बार तो सहते-सहते रोगी
की आंत उलझ जाती थी जिस से उनकी मौत भी हो जाती थी । एसी एक घटना मैंने स्वयं देखी
है । एक चौदह साल के बच्चे को बुखार में सहते-सहते उसकी आंते उलझ गई और बड़े मुश्किल
से शल्यकृया द्वारा उसकी जान बचाई जा सकी । परंतु हालात अब बदल गए हैं । एक से एक बिमारियों का इलाज संभव हो गया है । लोग
कैंसर जैसे विमारी से भी बंच जाते हैं । लेकिन इसका दुखद पहलू भी है । एक तो इलाज काफी
महगा हो गया है , दूसरा नित्य नए-नए विमारियां पैदा होती जा रही
हैं जिसका इलाज विज्ञान के पास है ही नहीं । असल में हम चाहे क्रोटि उपाय कर लें,एक-न-एक
दिन हमें इस दुनियां से जाना तो है ही । यह प्रकृति का नियम है । आया है सो जाएगा,राजा रंक
फकीर । इसलिए हमें प्रकृति के इस साश्वत सत्य को भी स्वीकार करना ही होगा । लेकिन इसका
मतलब नहीं होना चाहिए कि हम स्वस्थ रहने का प्रयत्न ही छोड़ दें । हम जबतक जीएं, स्वस्थ जीएं ,प्रशन्न रहें और कुछ ऐसा कर जाएं कि भावी पीढ़ियां हमें याद करें ।
चाहे आप
कितना भी बड़ा पद प्राप्त कर लें लेकिन अगर आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं है तो आप अपनी
उपलव्धियों का सुख नहीं उठा सकते हैं । ऐसे
कई उदाहरण देखने को मिलता है जब कई महत्वपूर्ण पद से स्वास्थ्य कारणों से लोगों को
इस्तिफा देना पड़ा । इसलिए हमें निरंतर स्वास्थ्य के प्रति सचेष्ट रहना चाहिए। परंतु
यह संभव हो कैसे ?
हर व्यक्ति
का प्रकृति, स्वभाव एवम् रुचि भिन्न होता है । साथ ही सब अनवांशिक रूप से भी एक-दूसरे से कई मामले में भिन्न-भिन्न होते है । इसीलिए सबों
के लिए कोई एक पैमाना नहीं नियत किया जा सकता है । लेकिन इतना तय है कि सब को अपने
परिस्थिति और आवश्यकता के अनुसार स्वास्थ्य के लिए कुछ जरूरी उपाय करना चाहिए ताकि
वे विमारियों के चंगुल में न पड़े और अगर विमारी हो ही गई है तो उस से यथाशीघ्र निजात
पा लें ।
भारतीय जीवन
पद्धति में विमारी से वचाव के लिए खान-पान और दिनचर्या पर बहुत जोर दिया गया हे । इस
बात का पूरा ध्यान रखा गया हे कि विमारी हो ही नहीं । इसके लिए नियमित आहार-विहार,स्वस्थ आदतें
एवम् सात्विक चिंतन को आधार बनाया गया है । नियमित प्राणायाम और योगासन से शरीर को
उर्जामय बनाने का प्रत्न किया जाता हे । शाकाहारी भोजन पर जोर दिया जाता हे । इस बात का बहुत ही महत्व दिया
जाता हे कि लोग प्रकृति से जुड़ें और नैसर्गिक
सुख-सुविधाओं का लाभ उठाएं ।
अंग्रेजी
चिकित्सा पद्धति में तरह-तरह के रासायनिक उत्पादों से दवाइओं का निर्माण किया गया है
जिसके उचित मात्रा में प्रयोग कर विमारी को ठीक करने का प्यत्न किया जाता है । कई बार
विमारी ठीक तो हो जाती है लेकिन कई नये समस्याओं को जन्म दे जाती है । उदाहरणस्वरुप, अगर आप एनटीबायोटिक लेते हैं तो साथ-सात पेट खराप हो जाने का और भूख नहीं
लगने की परेशानी हो जाती है । इसी तरह लगातार दर्द निवारक दवाइओं का प्रयोग करते रहने
से किडनी जैसा महत्वपूर्ण अंग खराप हो जाता है । कहने का मतलब है कि एलोपैथी चिकित्सा
पद्धति अपने-आप में पूर्ण नहीं है । एक समस्या को ठीक करते-करते कई और नई समस्या पैदा
कर देती है । शल्यकृया एलोपैथी चिकित्सा पद्धति
का एक महत्वपूर्ण देन है । इस से कई बार गंभीर विमारयों से मुक्ति मिल जाती
है । अंगप्रत्यार्पण द्वारा कई बार बेकार हुए अंगों को बदल दिया जाता है और अवश्यंभावी
मृत्यु को सालों सफलतापूर्वक टाल दिया जाता है ।
असल में
प्रकृति से कटते रहना और और नित्य नए व्यसनों का आदी होना हम पर बहुत भारी पड़ा है।
प्रकृति में कोई भी जीव -जन्तु बीड़ी-सिगरेट पीने का आदी नहीं होता है । कोई भी जनवार
शराब नहीं पीता है। स्वभाविक रूप से जो कुछ उनके स्वभाव के अनुसार उपलव्ध है उसी से
जीवन चलाते हैं । कई पशु तो पूरी तरह शाकाहारी होते हैं , वहीं कुछ मांसाहार पर ही निर्भर होते हैं । लेकिन एक हम हैं जो अपनी बुद्धि
का दुरुयोग कर तरह-तरह की आदतों के शिकार हो जाते हैं । परिणामस्वरुप, हम नित्य नये-नये विमारियों का इलाज कराते फिरते हैं ।
मरना-जीना
तो ईश्वर के हाथ है । यह भी सत्य है कि दीर्घायु होना कई बार दुखकर ही हो जाता है ।
कई ऐसी घटनाओं को देखना पड़ता है जिेस से अपार दुख होता हे । परंतु नियति के आगे हम
विवश हो जाते हैं । लेकिन इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि जीवन ईश्वर का अनमोल उपहार
है । हम इस दुनिया में बहुत कुछ देख सकते हैं,कर सकते हैं । इसलिए जरूरी है कि
हम जब तक जीवित हैं यथासाध्य स्वस्थ रहने का प्रयत्न करें ताकि हमारा जीवन अधिक से
अधिक अर्थपूर्ण हो सके ।