जीवन और
मृत्यु
पता नहीं कितने सालों से जीवन पृथ्वी पर है ? क्या
पृथ्वी के अलावा कहीं और भी जीवन है? क्या जीवन के बाद हमरा कुछ
आस्तित्व रहता है, कि जीवन के अंत याने मृत्यु के साथ ही सब
कुछ समाप्त हो जाता है?
जन्म लेने
के बाद समस्त जीव-जन्तु निरंतर विकास करता रहता है । यह प्रकृति की सुनियोजित और स्वचालित
व्यवस्था है जो विना किसी अपवाद के सबों पर लागू होता है । फिर भी नियतिवश कई बर दुर्घटनाओं
का शिकार होकर कई बार यह विकास का क्रम अधूरा ही रह जाता है । लेकिन सामान्यतः यह जीवन
चक्र अपनी पूर्णता के लिए अग्रसर होती रहती है । फिर एकदिन मृत्यु को आलिंगन कर न जाने
किस जहाँ में खो जाती है। इस तरह जीवन-मृत्यु का यह सिलसिला अनादि काल से चलता रहा
है और चलता रहेगा।
जीवन के
बारे में सब से आश्चर्यपूर्ण बात यह है कि कोई प्राणी चाहे वह कितना भी कष्टपूर्ण स्थिति
में क्यों न हो ,मरना नहीं चाहता है । सभी जीव-जन्तु निरंतर
अपनी रक्षा करने में लगे रहते हैं । लेकिन यह संसार है । हर वलिष्ठ प्राणी अपने
से कमजोर पर हावी हो जाता है या होना चाहता है । वन्य जीव-जन्तु एक-दूसरे का शिकार
कर ही जीवित रहते हैं । लेकिन मनुष्य में सोचने-समझने की शक्ति भगवान ने दी है । हम
कुछ करने से पहले उसके परिणाम पर विचार सकते हैं । लेकिन सामान्यतः लोग ऐसा कर नहीं
पाते हैं । वे अपने हितों के बारे में तो बहुत संवेदनशील रहते हैं लेकिन दूसरे के प्रति
दुराग्रहों से भर जाते हैं । ऐसा क्यों होता है? इसलिए क्यों कि हम निषेधात्मक प्रवृतियों
से घिर जाते हैं । हमारे सोच की दिशा ही भविष्य का द्वार निर्धारित करती है। दूसरों
के प्रति ईर्ष्याभाव से ग्रसित रहकर हम सुखी कैसे हो सकते हैं? हो ही नहीं
सकते है । यही कारण है कि आज के युग में इतना तनाव है । लोक आत्महत्या करते हैं और
बात-बात में,मामूली विवादों में दूसरों की जान लेने में भी बाज नहीं आते हैं ।
यह महत्वपूर्ण
नहीं है कि हम कितना जीते हैं । कुछ लोग कम दिन जी कर ही अमर हो गए । आदि शंकराचार्य
वत्तीस साल के उम्र में ही परलोकवासी हो गए परंतु इतने कम उम्र में ही उन्होंने भारत
के आध्यात्मिक जगत को झकझोर दिया । देश में चार शंकाराचार्य पीठों की स्थापना की ।
स्वामी विवेकानंद भी कम उम्र में ही स्वर्गवासी हो गए परंतु सायद ही कोई दिन होगा जब
अभी भी उनको लोग याद नहीं करते होंगे और उनके ओजस्वी प्रवचनों से लाबान्वित नहीं होते
होंगे । जो बात वे कह गए वे आज भी पूर्ण प्रासांगिक हैं और जीवन में मार्गदर्शक का
काम कर रहे हैं ।
जब भी हम
सकारात्मक सोच से जुड़ते हैं तो हम जीवन से करीब हो जाते हैं । सही माने में हम प्रकृति
में चतुर्दिक विद्यमान सौंदर्य का आनन्द उठाने में सक्षम हो पाते हैं । मेर और तेरा
का चक्कर समाप्त हो जाता हे। हम चाहने लगते हैं कि हमारे आस-पास के सभी लोग सुखी हों। वसुधैव कुटुम्वकम् सही माने में तभी चरितार्थ हो पाता है । ठीक इसके विपरीत हम जैसे ही निषेधात्मक तत्व जैसे अहंकार,क्रोध,ईर्ष्या आदि को अपना लेते हैं तो हम अपने जीवन में स्वयं ही विष घोल रहे होते हैं
। ऐसा नहीं होता है कि आप अकेले सुखी रहें,आपको दुनिया की सारी उवलव्धियाँ मिले
और दूसरे हाथ पर हाथ धरे रह जाँए । चतुर्दिक सच्चा सुख तो तभी मिल सकता है जब हमारे
आसपास सभी सुखी हों,सब अपने लक्ष्य को प्राप्त करें । इस तरह जीवन में ही हम अपने स्वभाव के अनुसार
अमृत और विष उतपन्न कर लेते हैं ।
सारांश यह
है कि जीवन काफी लंबा हो उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि वह अर्थपूर्ण हो । तभी जीना सार्थक है। तभी जीने का सही आनंद हम ले सकते हैं ।