गुरुवार, 17 मई 2018

पंक्षी और मानव


पंक्षी और मानव



ये पंक्षीगण,

फरफराते पंख अपने,

नहीं है कुछ भी उनके पास,

अट्टालिकाएँ या बैंक में खाता



न ही कोई करता इनकी परबाह,

न कोई कह उठता बाह बाह

जब वे अपने कलरव से,

चतुर्दिक भर देते उत्साह



सुनाकर नित मधुरिम संगीत,

कर देते सब को मस्त ,

और स्वयं भी रहते हैं अलमस्त।



और हम, पता नहीं क्यों ?

हमेशा रहते अस्त -व्यस्त,

अकारण चिंतित शोक संतप्त ।

सोचने में भी करते लाज,

कि क्या है,

उस मस्ती का राज ?



१.५.१९८३

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