मैथिलीमे हमर प्रकाशित पोथी

मैथिलीमे हमर प्रकाशित पोथी

मंगलवार, 7 मई 2024

विजयी जनक विदेह

 

विजयी जनक विदेह

 

आदरणीय श्री बुद्धिनाथ झाजी द्वारा रचित ॐ महाभारत आरम्भ खण्ड,मध्य खण्ड, समापन खण्ड तीन भागमे छपल अछि। ॐ महाभारतक कोनो भाग,कोनो पाँति कम महत्वपूर्ण नहि अछि। यत्र-तत्र-सर्वत्र जेना ज्ञानक गंगा बहि रहल अछि। एहिमे जतेक डुबकी लगाएब ततेक ज्ञान अर्जित कए सकब,ततेक आनन्द लूटि सकब। असलमे ई बुझाए नहि रहल अछि जे एहि पुस्तकक कोन अंशपर चर्चा करी आ कोन छोड़ि दी। सभ तँ एक पर एक अछि। तथापि,किछु अंशकेँ उदाहरणस्वरुप एतए उद्धृत कएल जा रहल अछि, किछु विशेषप्रसंगक चर्च कएल जा रहल अछि। तकर माने ई नहि जे दोसर प्रसंगसभ कोनो मानेमे कमतर अछि। सत्य कही तँ एहन ग्रंथ बहुत दुर्लभ होइत अछि जकर एक-एक बात उद्धरणीय होइक,जकर प्रत्येक प्रसंग स्वयंमे परिपूर्ण होइतो एक-दोसरक अनुपूरक होइक।

जनक-प्रसंग अनुशासन पर्वमे कविवर बहुत कुशलतासँ मिथिलाक समाज,तत्कालीन लोक-व्यवहार,राजा आ सामान्य लोकक आपसी संबंध,युद्धनीति, राजानीति,धनक महत्व,महाराज जनककेँ महर्षि पंचशिखक,मोक्षधर्मपर उपदेश,पराशर गीता,जनक-याज्ञवल्क्य संवाद,श्री शुकदेवजीक जन्म,शिक्षा ओ मिथिला गमन,राजा जनक द्वारा श्री शुकदेवक सत्कार ओ प्रथम पाठ,राजा जनक द्वारा श्री शुकदेवक पूजन ओ शिक्षारंभ, जनक द्वारा श्री शुकदेवजीकेँ अग्रिम शिक्षा,मिथिला माहात्म्य आ अंतमे पितामह भीष्मक अवसान शिर्षकसँ बहुत सटीक आ विद्वतापूर्ण वर्णन कएल गेल अछि।

शरशय्या पर पड़ल भीष्मसँ हुनकर पौत्र शुचि हुनकासँ विभिन्न विषयपर अनेक प्रश्न करैत छथि। भीष्म हुनका धर्मक तत्व बुझबैत सात्विक,राजस आ तामस प्रवृतिक लोकसभक स्वभाव,आचरण आ काजक वर्णन करैत छथि। ओ एहीक्रममे विदेह जनकक उल्लेख करैत हुनका ई बुझेबाक प्रयास करैत छथि जे जनक कोना सभकिछु करितहु ओहिसँ निर्लिप्त रहैत छलाह। ओ माटिएपर राज नहि करैत छलाह। असल मानेमे ओ  आत्मराज्य करैत छलाह।

ॐ महाभारतक जनक-प्रसंग अनुशासन पर्वक विजयी जनक विदेह शिर्षकमे पितामह आ पौत्रक संवादक क्रममे जनकक चर्च होइत अछि। जनक केहन महान योगी छलाह तकर चर्च होइत अछि। ओ धर्म तत्वक महीन सँ महीन विश्लेषण आ क्रियान्वयन करैत छलाह,तकर चर्च होइत अछि। ताही क्रममे पितामह एकटा ब्राह्मणक कथा कहैत छथि जे कोनो अपराध करबाक कारण जनक द्वारा राज्यसँ बाहर चलि जेबाक दंडक भागी भेल छलाह। ताहिपर प्रतिक्रिया करैत ओ ब्राह्मण जनककेँ पुछलखिन-

“पहिने अपन राज्यक सीमा तँ बता दिअ जकर बाहर हम चलि जाएब।”

ओहि ब्राह्मणक प्रश्नसँ जनक बहुत चिंतिति भए गेलाह। फेर बजलाह-

“बात तँ अहाँ सही कहि रहल छी। हमर पुरखाक देल एहि राज्यक सीमा निर्धारण करए बला हम के होइत छी?”

बातकेँ आगू करैत ओ कहैत छथि-

एहि राज्यपर देखि रहल छी,हमर नहि अधिकार

हम के छी जे ककरो कहि दी,चलि जाउ सीमा पार।

एक दृष्टिसँ,ब्राह्मण देखी,सीमा भरि संसार

ओहि दृष्टिसँ सभटा हमरहि,के क़ सकते पार।।

राज्य आ तकर सीमा तँ सभ मोनक भ्रम थिक। बात तँ ईहो थिक जे सभ किछु हमर भीतरेमे समाहित अछि। सही मानेमे राज्योक परिधि तँ हमर अपने मोनमे अछि।

जनकक बात सुनि कए ओ ब्राह्मण बड़ी जोरसँ ठहाका पारलथि।

“अहाँकेँ अचानक एतेक ज्ञानक बात कोना फुराएल।”

तकर उत्तरमे जनक अपन मोनक वैराग्यक भाओ प्रकट करैत छथि,सांसारिक वस्तु केहन तुच्छ अछि से बुझबैत छथि। एहि क्षणभंगुर संसारक निरंतर भए रहल परिवर्तनक चर्च करैत छथि। अंतमे ओ बाजि उठैत छथि-

हे ब्राह्मण!  हमरा ले नहि अछि,एहि राजके काज

आत्मराज के अधिकारी,हम ओ विजयी महाराज।।

जनकक संवाद आ ताहिमे प्रकट भेल हुनकर ज्ञानसँ ओ ब्राह्मण बहुत प्रभावित होइत छथि।  ओ अपन असली रूपमे आबि जाइत छथि। असलमे तँ ओ धर्मराज स्वयं रहथि आ जनकक परीक्षा लेबाक हेतु आएल रहथि। जनक निश्चित रूपसँ एहि परीक्षामे प्रथम श्रेणीमे विशिष्टताक संग उत्तीर्ण भेलाह। ओ तुरंत अपन मौलिक रूपमे आबि गेलाह-

महाराज हम आन थिकहुँ नहि,साक्षात धर्म छी

अपने धर्मदेह धारक सुसिद्धि,साक्षात ब्रह्म छी

देखै छलहुँ,हम देवलोकसँ,अपने जदपि सदेह

जनक परीक्षा भेल धर्मतः,राजा जनक विदेह

मिथिलापर भेल आक्रमणक संबंधमे चर्चा करैत पितामह कहैत छथि-

मिथिलके महराज जनकपर,युद्धक भार थोपाएल

नृपति प्रतर्दन मिथिलेश्वरपर,चढ़ि आक्रमण कएल।।

मिथिलापर शत्रुक आक्रमण भेलापर राजा जनक अपन सैनिकसभकेँ जीवन आ मृत्युक यथार्थसँ परिचय करओलनि,  अपन योगबलसँ ओकरासभकेँ सद्यः देखा देलखिन जे युद्धमे घात केलासँ वा शत्रुसँ मिलि गेलाक बाद केना नरकमे बास होइत छैक। तहिना अपन कर्तव्य नीकसँ केलापर सैनिक यदि मरिओ जाइत अछि तँ ओकरा मुक्ति भेटि जाइत छैक। एहि बातसँ प्रभावित भए सैनिकसभ मोनसँ युद्ध केलक ,शत्रुकेँ बरबाद कए देलक आ विजयी भेल।

युद्धनितिक चर्चा करैत पितामह कहैत छथि-

धर्मयुद्ध लए जँ दुश्मन तँ,अहूँ धर्मतः लड़ू

ओ जँ करए प्रहार तँ अहूँ,ओकरासँ नहि डरू।

अपितु अहाँ करू प्रत्युत्तरमे,आओरो कठिन प्रहार

जाहिसँ फेरो युद्ध कर के,नाम ने लए ओ यार।।

युद्दमे अन्यायपूर्वक प्राप्त विजयक संबंधमे हुनकर कहब छनि-

पाथरपर पटकाएल घैल,जेना खपटा-खपटा होइए

जेना धारके कातक पादप,अन्हड़ जड़ि समेत खसैए

जेना बालुपर ठाढ़ भीत,खन अपनहि मोने ढहैए

तहिना विजय पापसँ अरजल,अल्पहि काल जीबैए।।

युद्धक बारेमे राजाक कर्तव्यक चर्च करैत पितामह कहैत छथि जे यदि आवश्यक भए जाए तँ राजाकेँ शत्रुक आक्रमणक यथोचित उत्तर अबस्स देबाक चाही।

अबल-दुबलपर कहबी छै जे,खुरचन चोख कहाए

पुरुष भजन्म लेलहुँ ,तँ अड़ले रहब उपाय

टाल ठोंकि जे ठाढ़ रहत,से बीर ने खत्ता खाएत

ञि जँ अरिकेँ दाँत देखायत,अलगट प्राण गमाएत।।

यदि शत्रु हारि मानि लिअए,किंवा युद्धमे आहत भए जाए तँ ओकरा शरण देबाक चाही।

तखन उचित थिक राजन,ओकरा ऊपर नहि हो वार

यदि पड़ल बीमार शत्रु तँ,हो शीघ्र प्रबन्ध उपचार।।

कविवरक मिथिला प्रेमकेँ स्पष्ट करैत मिथिला महात्म्य शिर्षकसँ लिखल गेल अंशमे हुनकर निम्नलिखित पाँति पढ़ि रोमांचित भए जाइत छी-

तों तँ माय छह,हमरा खातिर,तोरहु बहुत तबाही

मातु मोन नञि अछभेल अछि,फेरो जिनगी चाही

मुक्ति देबह एहि-जन्म मरणसँ,बरु नहि रहओ ठेकान

जन्मी तँ पुनि मैथिल भ ,माते!  से टा रखिहह ध्यान

उपरोक्त विषयसभकेँ कविवर श्री बुद्धिनाथ झाजी ॐ महाभारतक समापन खण्डमे जनक-प्रसंग अनुशासन पर्वमे बहुत नीकसँ वर्णन केलनि अछि। एहि कवितासभक एक-एक शब्द जेना खन-खन कए रहल अछि,अर्थपूर्ण अछि,संगीतमय अछि,पाठककेँ एक्को क्षण लेल विरत नहि करैत अछि,अपितु मोन होइत रहैत छैक जे पढ़िते चलि जाइ। आश्चर्य लगैत अछि जे एहन अद्भुत काव्यक रचना ओ केना केलनि। निश्चित रूपसँ हुनकामे दैबी शक्ति रहल हेतनि जे ओ एहन रचना करैत गेलाह, से एक दिन ,दू दिन ,मास-दू मास नहि, वर्षक-वर्ष। संपूर्ण ॐ महाभारतक रचबामे हुनका सात वर्ष समय लगलनि। गजब निष्ठा आ समर्पण सँ ओ ई काज संपन्न केलनि। मैथिली साहित्य आ संपूर्ण मैथिल समाजक हेतु ॐ महाभारत एकटा गौरव ग्रंथ अछि। आधुनिक कालमे साइते एहन दोसर उदाहरण भेटि सकत।

एहि पुस्तककेँ समर्पित करैत कविवर लिखैत छथि-

हे माते!  अपनेक लेल ई,पुस्तक दिव्य प्रसूनक माल

तृप्त होउ हे हमर मैथिली,दीपीअ प्रभा सकल सुत भाल।

मिथिला,मैथिल,मैथिलीक कर;एकहि संग समर्पण भेल

छथि अनाथ ई ‍’बुद्धिनाथ’ तेँ क्षमा भेटओ घट्टीक लेल ।।

कविवरक मिथिला-मैथिलीक प्रति समर्पणक भाओ आ व्यक्तित्वक विनम्रता उपरोक्त पाँतिएसँ केना झलकैत अछि से कहबाक प्रयोजन नहि अछि। तुलसीदास सही कहने रहथि –

बरषहिं जलद भूमि निअराएँ। जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ।

आदरणीय श्री बुद्धिनाथ झाजी उपरोक्त कथनकेँ अपन व्यवहारसँ निश्चित रूपसँ चरितार्थ करैत छथि।

एहि महाकव्यकेँ पढ़ैत काल एहन-एहन शब्द भेटैत अछि जे आब मैथिलीमे दुर्लभ भए गेल अछि। एक-एक पाँति ओजसँ भरल अछि। जतहि देखू ततहि ज्ञानक तँ जेना पथार लागल अछि। हमरा तँ लगैत अछि जे यदि केओ संपूर्णतासँ ॐ महाभारतक अध्ययन कए लिअए तँ ओकरा एक्केठाम ततेक विषय-वस्तु भेटि जेतैक, ज्ञान-विज्ञानक विभिन्न आयामक ततेक जानकारी भए जेतैक जकर वर्णन अन्यथा नहि कएल जा सकैत अछि। निश्चित रूपसँ ॐ महाभारत एकटा अद्भुत महाकाव्य अछि। कविवर श्री मान् बुद्धिनाथझाजीकेँ एहन अनुपम ग्रंथ रचना करबाक हेतु हमसभ बहुत आभारी छी,कृतज्ञ छी  आ जगदम्बासँ प्रार्थना करैत छी जे ओ दीर्घायु होथि,  हुनकर कीर्तिपताका संपूर्ण मिथिलेमे नहि अपितु विश्वभरिमे एहिना फहराइत रहनि।

रबीन्द्र नारायण मिश्र

७।५।२०२४




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