माया और
मुक्ति
सभी जानते हैं कि
जीवन क्षणभंगुर है
कि इसका नाश होना ही है
कि मृत्यु के उपरांत कुछ भी
साथ नहीं ले जाना है
सब कुछ यहीं छूट जाना है ।
लेकिन आश्चर्य है कि
सब कुछ जानकर भी
हम जीवन भर ,
कुछ और कुछ और के
चक्रव्युह में फँसे रह जाते हैं
और अंत में खाली हाथ चले जाते हैं ।
ऐसा क्यों है?
क्यों नहीं हम समय रहते समझ पाते हैं
इस सब की व्यर्थता
और रह जाते हैं
इसी में लिप्त आजीवन ।
यही है माया
जिसमें अनुरक्त
हम रह जाते हैं अनभिज्ञ
जीवन के सत्य से ।
काम,क्रोध,लोभ के वशीभूत
गढ़ लेते हैं चतुर्दिक
नर्क ही नर्क ।
धर्म के नाम पर करते हैं
नाना प्रकार के छल -प्रपंच
लोगों को ठगते हैं
कि यह करो,वह करो
मिलेगा स्वर्ग
जहाँ रहोगे सुखी और संपन्न ।
परंतु,
ऐसा कभी कुछ होता नहीं है
स्वर्ग की कामना
लिए हम चले जाते हैं
दूर,बहुत दूर
जहाँ से कोई लौटकर आया नहीं
यह कहने कि
उसे स्वर्ग मिला या नहीं ।
अज्ञानतावश
हम सुन नहीं पाते है
आत्मा की आवाज
कि
“ मैं यहीं हूँ”
व्याकुल मुक्ति के लिए ।
रबीन्द्र
नारायण मिश्र
१२.५.२०२०
mishrarn@gmail.com
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