मैथिलीमे हमर प्रकाशित पोथी

मैथिलीमे हमर प्रकाशित पोथी

शनिवार, 30 मई 2020

ग्रामोफोन


ग्रामोफोन



कारी गोल चक्का घुमि रहल छल । ओकर बीचमे एकटा मुरुत सेहो घुमि रहल छल । कतहु केओ नहि देखा रहल छल । तथापि, एकटा बक्साक बीचमेसँ आबाज अबैत छल । गाना सुनाइत छल । ओहि समयमे एहिसँ बेसी अजगुत बातक कल्पनो नहि कएल जा सकैत  छल । ओ छल ओहि समयक प्रमुख मनोरंजनक साधन-ग्रामोफोन । गाममे मोसकिलसँ दू-तीन गोटेकेँ से रहनि । गाममे कतहु सत्य नारायण भगवानक पूजा भेल,वा एहि तरहक कोनो आयोजन भेल तँ ओ बजाओल जाइत छल । नेनासभ बहुत उत्सुकतासँ ओकरा घेरने रहैत छल ।

हमसभ नेनामे कैकबेर ग्रामोफोनक रेकार्डकेँ घुमैत काल ओकर बीचमे नचैत चित्रकेँ देखि सोचिऐक जे इएह गाबि रहल छैक । कैकबेर होअए जे ग्रामोफोनक भीतर केओ नुकाऐल अछि आ गाबि रहल अछि । कैकबेर ग्रामोफोनक बक्सा खोलि कए देखबो करिऐक मुदा किछु नहि देखाइत छल । तखन ई गाना के गबैत अछि? ई आबाज कतएसँ आबि रहल छैक? एहि प्रश्नक जबाब के दैत? गाममे तँ तखनो ग्रामोफोन दुर्लभ छल । कोनो विशेष अवसरपर बजाओल जाइत चल-जेना ककरो ओहिठाम जँ सत्य नारायण भगवानक पूजा होइत तँ लोकसभक आग्रहपर अमीर काकाकेँ खुशामद करैत । तखन ग्रामोफोन आनल जाइत । डेढ़ हाथक पेटी खुजैत । ओहिमे एकटा नोकीला सुई गोलका चक्कामे लगाओल जाइत । हाथकेँ घुमा-घुमा कए ओकर स्प्रिंगकेँ तानल जाइत । ग्रामोफोनक बीचमे रेकार्डकेँ राखल जाइत । सभसँ अंतमे ओकर स्वीचकेँ घुसकाओल जाइत  आ शुरु होइत संगीत । बाह! की कमालक मसीन अछि - लोक मोने-मोन सोचैत। बेसी काल रामायणक रेकार्ड लगाओल जाइत । कैकबेर नचैत-नचैत रेकार्ड ठाढ़ भए जाइत । आबाज खतम । गीत बंद । नेनासभ  चारूकातसँ लुधकि जाइत । सभकेँ जिज्ञासा जे आखिर भेलैक की?

हमरा गाम(अड़ेर डीह टोल)मे स्वर्गीय घुरन बाबूक ओहिठाम सेहो ग्रामोफोन रहनि । ओ ग्रामोफोन बेहतर चल । हुनकर पुत्र डाक्टर सच्चिदानंदजीक संगे हम ओहि ग्रामोफोन धरि कैकबेर पहुँचल रही । कहि नहि सकैत छी जे कतेक उत्सुकताक संग ग्रामोफोनक गीत सुनने रही । किछुदिनक बाद एकटा ग्रामोफोन हमर बाबू सेहो लेलाह । मुदा ओ ग्रामोफोन स्थानीय मिस्त्री बनओने रहए । कखनहुँ चलैक आ कखनो बैसि जाइक । ओहिमे एकटा भोपू लागल रहैक जाहि बाटे आबाज बाहर होइक । ऐकबेर किछु टाका जेना-तेना ओरिआन कए हम बिंदूकाकाक संगे मधुबनी जा कए ग्रामोफोनक रेकार्ड किनने रही । किशोरीलाल चौक मधुबनीसँ सटले  ओ दोकान रहैक। ओ ससुराल फिल्मक गाना रहैक । एकदिस -तेरी प्यारी-प्यारी सुरत को किसी की नजर न लगे…….दोसर दिस रहैक-अपने उल्फत पे जमाने का नजर ना होता तो कितना अच्छा होता..............

नेनामे कोनो बातक  जिज्ञासा बहुत होइत छैक । ग्रामोफोनसँ निकलैत आबाजकतएसँ अबैत अछि? ई जानबाक इच्छा प्रवल रहैत छल । केओ कहितए जे ग्रामोफोनक भीतर एकटा बुढ़िया रहैत छैक । ओएह गबैत छैक,केओ किछु । हम ग्रामोफोनकेँ खोलि-खोलि ओकर पाट-पाटमे ओहि बुढ़या गबैयाकेँ तकैत रहैत छलहुँ । मुदा कतहु किछु कहिओ नहि देखाएल ,उल्टे कैकबेर मसीन खराप भए गेल। कैकबेर ग्रामोफोनक भोपूमे मुरी पैसा कए देखैत रही मुदा जेहो आबाज अबैत छल सेहो क्रमश; बंद भए जाइत छल । अस्तु,ग्रामोफोन एकटा रहस्य बनल छल । मुदा केओ ई नहि बूझा सकल जे आखिर ई कोना काज करैत अछि आ एहिमे सँ निकलि रहल आबाजक पाछू कोन विज्ञान छैक?

ग्रामोफोनक ओएह रुप-रेखा हम बहुत दिनक बाद देखलिऐक दिल्लीक कनाट प्लेसमे  । हमुमान मंदिरसँ दर्शन कए बाहर भेल रही । काफी होमक नीचाबला परिसरमे कोनपर ग्रामोफोन राखल छल । ओएह छवि,ओहने छटा जेहन हम नेनामे अपन गाममे देखने रहिऐक । ओकर आकार कनेक पैघ जरूर छलैक । बड़ीकाल धरि हम ओकरा देखिते रहि गेलहुँ । फेर मोबाइलसँ ओकर फोटो खिचलहुँ। पता लागल जे ओ सौकिआ ओतए राखल छैक ,बिकेतैक नहि । जँ बिकेबो करितैक तँ आब केओ सजाबटेक हेतु लेत ,ओहिसँ आओर काज तँ करत नहि । कारण आब तँ एक सँ एक यंत्र आबि गेल अछि । गाना-बजानाक साधनक कमी नहि अछि । नान्हिटा रेडिओसँ,मोबाइलसँ हजारों गाना बजाओल जा सकैत अछि । टीवीक तरह-तरहक प्रकारसँ बजार भरल अछि । से जे होउक मुदा ग्रामोफोन संगीतक दुनिआक इतिहासक अभिन्न अंग रहल अछि आ ताहि बातकेँ बिसरलो नहि जा सकैत अछि ।



30.5.2020

मंगलवार, 26 मई 2020

पिताक देहावसान





पिताक देहावसान

 

 

भैया नहि रहलाह ।

की भेलनि?”

आइ भोरे छातीमे दर्द उठलनि ।   योगीजी पानि चढ़ओने रहथिन। मुदा हाल गड़बड़ाइते गेलनि आ किछुकाल पहिने चलि गेलाह।

मधुबनीसँ नबोनाथजीक फोन छल । समाचार सुनि कनी काल लेल सुन्न पड़ि गेलहुँ । फेर सम्हरलहुँ,शांत भेलहुँ ।  सोचलहुँ जे अखन तुरंत तँ गाम गेनाइ संभव नहि अछि । आइ-काल्हि जकाँ धर दए हवाइ जहाजपर चढ़ि जेबाक समय नहि रहैक ने हमरा लग ततेक पैसाक जोगार छल । श्राद्धक हेतु सेहो पैसाक जोगार करबाक छल । अस्तु, नवोनाथजीकेँ कहलिअनि-

अनुज लोकनिकेँ कहबनि जे आगु बढ़थि ।

कहक माने जे पिताक अंतिम संस्कार कए देल जानि । हमर प्रतीक्षा नहि करथि । सएह भेवो कएल । हमरासँ छोट सुरेन्द्रजी बाबूकेँ आगि देलखिन। आओर दुनू भाइ सेहो ओतए उपस्थित रहथि । गाम-घरक लोग तँ रहबे करथि ।

जखन नबोनाथजीक फोन आएल तँ हम कार्यालयमे रही। करीब चारि बजेक समय रहल हेतैक । ७ फरबरी १९८९क (फाल्गुन शुक्ल द्वितिया )दिन रहैक । ओहि समय हम गृह मंत्रालयक आंतरिक वित्त विभागमे डेस्क अधकिारी रही ।  ए.के. हुइ हमर अधिकारी छलाह । हुनका सभ बात कहलिअनि । ओ बहुत सहृदयतापूर्वक हमरा हेतु रेलक टिकटक ओरिआन केलाह । कार्यालयसँ छुट्टी सेहो भेटल। तकरबाद सरोजिनी नगर स्थित सरकारी आवासपर पहुँचलहुँ । श्रीमतीजीकेँ सभबात कहलिअनि।

पिताक देहांतसँ पूर्ब रातिभरि हमरा निन्न नहि भेल रहए। भरि राति टुकुर-टुकुर करैत बिति गेल छल । संभवतः आसन्न दुर्घटनाक आहट मोनकेँ भए गेल हेतैक । मधुबनीमे घर बनाएब प्रारंभ केने रही। हमर आग्रहपर नबोनाथजी बाबूकेँ डाक्टरसँ बेनीपट्टीमे देखओने रहथि ।  यद्यपि ओ बहुत कमजोर भए गेल रहथि,भूख नहि लगनि मुदा एहन नहि लगैक जे एतेक जल्दी चलि जेताह । हमर छुट्टी बिति गेल छल । पटना बाटे टिकट छल । मुदा पटना पहुँचतहि पता लागल जे ट्रेनमे हड़ताल भए गेल छैक । ट्रेन नहि चलत । तखन की कएल जाए? सपरिवार साढ़ूजीक डेरापर पटना पहुँचलहुँ । दोसर दिन जा कए ट्रेन खुजल । हमसभ दिल्ली पहुँचलहुँ । तकर दू दिनक बादे ई समाचार भेटल ।

ई हमर दुर्भाग्य जे हम पिताक अंतिम समयमे हुनका लग नहि रहि सकलहुँ ,हुनकर अंतिम संस्कारमे भाग नहि लए सकलहुँ। मुदा आब एहिसभपर सोचलासँ की फएदा? हम कइए की सकैत छलहुँ? हवाइ जहाजसँ जा सकब से तँ सोचेबो नहि कएल छल? एतबा ध्यानमे आएल जे हुनकर श्राद्धक हेतु यथासाध्य टाकाक जोगार केने चली नहि तँ गाम गेलाक बाद ओहो एकटा महासंकट भए जाएत । ककरासँ मंगितिऐक? दिल्लीमे तँ तइओ जोगार भए सकैत छल । गाम तँ गामे थिक । दिल्लीक लड्डू जे खेलक सेहो पछतेलक आ जे नहि खेलक सेहो ।  गाम जेबासँ पूर्व टाकाक जोगार करब जरूरी छल आ सएह सोचि दू दिनक बाद गाम बिदा भेलहुँ ।

असलमे समाचार भेंटलाक तुरंत बाद नहि जेबाक कारण श्राद्धक हेतु टाकाक जोगार करब छल । गाम खाली हाथ गेनाइ उचित नहि बुझाएल । जेना-तेना तेसरदिन रातिमे हम गाम पहुँचलहुँ । सबसँ पहिने माए भेटलीह । सदा-सर्वदा जकाँ शांत । अपन बच्चासभकेँ देखि संतोख केने । हमरा देखितहि कहलीह-

आब कमसँ कम शांतिसँ काज होएत ...।

तकरबाद माए बाबूक देहांतक परिस्थितिक चर्च करैत रहलीह । बड़का-बड़का आँखिसँ ढबर-ढबर नोर धारा प्रवाह बहि रहल छलनि । की कहितिअनि? कोना संतोख दितिअनि ? लगभग बाबन वर्षक संग छुटि गेल रहनि । दुखक बात तँ रहबे करैक । मुदा एकर कोनो समाधानो तँ नहि भए सकैत छल । से ओ बुझैत छलीह । एहन असीम धैर्य भगवान सभकेँ देथुन । मोनमे अपार पीड़ाकेँ निरंतर झपने दिन-राति ओहनो समयमे ओ परिवारमे घिरनी जकाँ बहैत रहलीह,काज करैत रहलीह -बिना कोनो प्रतिपूर्तिक अभिलाषाकेँ । के उतारत हुनकर ॠण ? मुदा अंत- अंत धरि हमरा मोनमे ई भाव अबैत रहल जे जन्म-जन्म ओएह हमर माए होथि । हम हुनकर जे ॠण नहि उतारि सकलहुँ से आगु उतारबाक प्रयास करी । कैकबेर अखनो हमरा मोनमे होइत रहैत अछि जे कनीको कालक हेतु ओ घुरि अबितथि तँ हम हम हुनकर पैर पकड़ि माफी मांगि लितहुँ । कहितिअनि-हे माते! हमरासँ जे त्रुटि भेल ताहि हेतु क्षमा करू । मुदा से कतहु भेलैक अछि? एहि संसारसँ जे एकबेर गेल से घुरि नहि आएल , कदापि नहि ।

एक हिसाबे हम श्मशानेमे बैसल रही । बाबूक साराक आगि मिझा गेल छल । हम,हमर अनुज लोकनि आ महापात्रजी ओहिठाम रही । सभ मिलि कए छाउरमेसँ हड्डीक अवशेष(फूल) चुनैत रही । तकर बाद माटि,पानि आ बचलाहा छाउर सभकेँ मिला कए सारा बनाओल गेल । ओहिपर तुलसी रोपल गेल ।  मंत्र पढ़ल गेल । ई सभ करैत-करैत किछु समय लागल । बीच-बीचमे खाली समयमे बाबूक संग बिताओल समय ,हुनकर हमरासँ आशा-अभिलाषाक कतेको प्रसंग मोन पड़ैत रहल । ई स्थिति श्राद्धक बादो बहुत दिन धरि बनल रहल ।

सभ माता-पिता अपन संतानकेँ यथासंभव मानैत अछि,नीकसँ पालन करैत अछि । मुदासभक भाग्य एकरंग होइक तखन ने? केओ जनमिते राजाक घरमे पहुँचि जाइत अछि आ केओ सड़कपर कनैत रहैत अछि आ माता-पिता असहाय भेल मजदूरी करैत रहैत अछि । हमर माता-पिताक नओटा संतान छलनि । पाँचटा बेटी आ चारिटा बेटा। हम हुनकर छठम संतान छलिअनि।  हमर बाबूक हालत जखन गड़बड़ेलनि तँ ओ सोचथि जे हम ततेक भारी अधिकारी बनब जे सभ क्षतिपूर्ति कए देबनि । सभ भाए-बहिनकेँ जकरा-जतेक मदतिक काज हेतनि से कए देबनि आ अपन तँ कइए लेब । हम मेहनतिसँ पढ़ी,अपना भरि जे पार लागए से करी,प्रयास इएह रहए जे पिताक मनोरथ पूर्ण कए सकिअनि । मुदा कहबी छैक जे हाथ आ मुँहक बीचमे  बहुतक फासिला होइत छैक।

मनुक्ख केहन पाथर जीव होइत अछि? की- की ने सहि जाइत अछि? कहि नहि सकैत छी जे हमर पिता हमरा कतेक मानथि,कतेक प्रेरित करथि,दिन-राति एहि प्रयासमे रहथि जे हम नीकसँ-नीक करी,ताहि हेतु जे पार लगलनि से केबो केलाह । मुदा कर्ण जकाँ हुनको जीवन रथक पहिआ फँसि गेल रहनि । आर्थिक पराभव तेहन भए गेलनि जे ऐन मौकापर सभकिछु ठमकि गेल । सभ तैयारी धएले रहि गेल।

चारिमदिन सारा झपलाक  बाद हमरा उतरी स्थानांतरित कएल गेल । तहिआसँ द्वादसा धरि तरह-तरहक कर्मकाण्ड कएल गेल । ओहि समयमे हमरो आर्थिक परिस्थिति ठीक नहि छल । जेना-तेना किछु टाकाक जोगार कएलहुँ । हमर अनुज सुरेन्द्रजी सेहो यथासाध्य योगदान देलथि । एहि तरहें गामभरि ब्राह्मण भोजन(दुनू दिन)क व्योंत भेल । जेना-तेना बाबूक श्राद्ध संपन्न भेल। श्राद्ध भए गेलाक बादमाएक मोन बहुत आश्वस्त लागि रहल छलनि ।

हमर परिश्रम आ निष्ठाक प्रशंसा बाबू बेर-बेर आन भाए लोकनिक समक्ष करथि जाहिसँ हुनकोसभकेँ ओहिना करबाक प्रेरणा होनि । मुदा भेल उल्टे । ओ सभ नहि तँ कमसँ कम हमर एकटा भाएक मोनमे तेहन ग्रंथि बनि गेलनि जे ओ जीवन भरि ओहिसँ उबरि नहि सकलाह आ हमरा ओहि कारण जे दुर्गति केलाह से हमही जनैत छी । अभिवावककेँ चाही जे एकटा बच्चाक प्रशंसा दोसर-तेसर बच्चालग करैत समयमे सावधानी राखए,नहि तँ संतानसभमे आपसी कलहक कारण बनि जाइत अछि ।

सन्१९८९मे पिताक देहांतक बाद २७ वर्ष माए रहलीह । सभदिन ओहिना शांत,संघर्षरत । पिताक देहांतक बाद सभसँ बेसी चिंता हमरा माए हेतु भेल । हम निश्चय केलहुँ जे जीवनपर्यंत माएक सेवा करैत रहबनि जाहिसँ हुनका कोनो कष्ट नहि होनि । हमरा एहि बातक संतोख अछि जे हम एहि संकल्पक पालन केलहुँ । कतबो परेसानी भेल मुदा सभ मास बिना कोनो अपवादकेँ हम माएक नामे मनीआर्डर पठबैत रहलहुँ । कतेको बेर बहुत जरूरी खर्चामे  कटौती कए एहि काजकेँ कएल जा सकल । यद्यपि हमरा नीकसँ बूझल छल जे माए हमर पठाओल टाकामेसँ गाममे हुनका लग रहैत परिवारक अन्य सदस्य लोकनि पर खर्च करैत रहलीह-इच्छा वा अनिच्छापूर्वक । मुदा ओ आर्थिक आधार हुनका जीवनमे बहुत मदति केलकनि । हम एहि बातक हेतु निरंतर प्रयास केलहुँ जे ओ हमरा संगे दिल्ली रहथि मुदा ओ ताहि हेतु कहिओ तैयार नहि भेलथि । हमरा जनैत तकर मूल कारण छल जे ओ स्वतंत्र रहए चाहैत छलीह । दोसर कारण हुनकर गाममे रहनिहार हमर अनुज आ हुनकर परिवार छलनि । माए तँ सभहक होइत छैक। नओटा संतान हुनका रहथिन । जाहिर  छैक जे सभक प्रति हुनकर अनुराग रहनि । तेँ ओ कहिओ गामसँ बाहर रहबाक हेतु राजी नहि होथि । जे परिस्थिति छलैक ओहिमे जे संभव  छलैक से हम केलहुँ ।

हमर पिताक अभिलाषा रहनि जे हम बहुत पढ़ी,बड़का हाकिम बनी,तकर बाद पूरा परिवारकेँ जकरा जे जरुरत होइक से पूरा करैत रही । मुदा जीवनमे एहन साइते होइत होइक । ने हमरा ओतेक सामर्थ्य भगवान देलनि जे सभक भार उठा लितहुँ आ जकरा,जखन जाहि वस्तुक प्रयोजन होइतैक से पूरा करैत चलि जइतहुँ । खैर! जे हेबाक छलैक से भेलैक । आब ओकर की घमरथन होएत । माता-पिताक प्रतिए सभ संतानक कर्तव्य होइत अछि । मुदा से कहाँ होइत अछि? माता-पिता नओटा संतानक पालन केलनि आ जखन माए दुखित भए ओछाओन धए लेलीह आ हुनका परिवारक जरुरत भेलनि तँ जे हाल भेल से लिखल नहि भए रहल अछि।

ई जीवन छैक । एहिठाम सभकिछु मनोनुकूल नहि होइत छैक । भावी प्रवल होइत छैक । समय ककरो नहि छोड़ैत अछि । कृष्ण सन महान व्यक्ति एकटा मामूली व्याधाक हाथे मारल जाइत छथि । अर्जुन लुटेरासभक सामनेमे हथप्रभ रहि जाइत छथि आ ओ सभ द्वारकाक विधवा आ ओकरसभक धन-संपत्तिकेँ लुटि लैत अछि । एहन-एहन अनेको उदाहरण एहि संसारमे भेटत । एहिसभ बातपर विचार केलासँ शांति भेटि सकैत अछि । अन्यथा तँ जीवनमे लोक सोचिते रहि जाएत ।

समय बिति जाइत छैक,मुदा बात मोन रहि जाइत छैक । आइओ जखन असगरमे सोचैत छी तँ बाबू बहुत मोन पड़ैत छथि आ मोन पड़ैत अछि हुनकर सतत जीवंत आ आशावान व्यक्तित्व। अखनहु कैकबेर लगैत अछि जेना बाबू ठाढ़ छथि,हम हुनका गोर लागि रहल छी आ ओ हमरा आशीर्वादक वर्षा कए रहल छथि .. 



26.5.2020




सोमवार, 25 मई 2020

जीवन यात्रा






जीवन यात्रा



जीवन एक यात्रा है

सभी चलते जा रहे हैं

कोई आगे कोई पीछे

यद्यपि पता नहीं है गंतव्य

और चलते-चलते हो जाते हैं विलुप्त

कोई भूलकर भी नहीं आता वापस

बताने कि उधर क्या था?

या कुछ है ही नहीं

जो गया बस चला ही गया

छोड़ गया हमें अपने हालपर

कि हम सोचते रहें

तलासते रहें

कि सही क्या है?

परंतु,कौन देगा उत्तर?

सभी तो स्वयं में हैं प्रश्न ।

किसी को नहीं पता कि

मृत्यु अपने आप में अंत है या नहीं ?

इसके बाद कुछ है कि नहीं?

मृत्यु के बाद कुछ बचा या नहीं ?

शरीर से पृथक आत्मा है या नहीं?

परंतु,क्या रखा है इन विवादों में ?

जो विद्यमान है

जिसे हम सद्यः देखते हैं

वह है आज का जीवन,

इसे सार्थक बनाइए

छोड़िए कल की चिंता

जो होना है सो होगा,

इसपर सोचते रहने से क्या लाभ?

सामने जो समस्या है

उसका समाधान कीजिए

काम,क्रोध ,लोभ को छोड़कर

शांति को अपनाइए,

जीवन का अर्थ ही बदल जाएगा

कलतक जो पराए थे

सब अपने बन जाएंगे

सब कुछ यहीं है

बात इसी पर है कि

 आप  क्या अपनाते हैं,

वही हवा पीकर सर्प बना लेता है विष

और

बेली के फूल से निकलता सुगंध है ।

जो है उसे तो जी लीजिए

समय पर सही निर्णय से

जीवन को सही दिशा दीजिए,

वह अपना गंतव्य पहुँचेगा

बिना किसी अपवाद के ।

सोचिए और समझिए कि

जीवन एक अवसर है

मुक्त होने का स्वयं से

और उनसे भी

जिसे हम चाहे अनचाहे

जीवन भर सहेजते रहे

 और

चाहकर भी अपना न सके।





रबीन्द्र नारायण मिश्र

२५.५.२०२०

mishrarn@gmail.com

शुक्रवार, 22 मई 2020

यशोलिप्सा


यशोलिप्सा



गाँव का मजदूर हो या शहर का बाबू

सभी अपनों के बीच  शान- सौकत में रहना चाहते हैं

आस-पास अपना प्रभाव छोड़ जाना चाहते हैं

ऐसे ही मेरे गाँव वापस आया था एक मजदूर

जीवन भर उठापटक कर कुछ पैसे कमाया था

गाँव में सेखी बघारने का कोई अवसर छोड़ता नहीं था

कभी- कभी तो बेबजह चिल्लाता था

ताकि लोग समझ लें कि वह गाँव आ चुका है ।

और वह भी कुछ है

किसी से कम नहीं ,ज्यादा है ।

उसका हो पूरा मान-सम्मान

लोग उसके साथ आदर से पेश आएं

देखते ही अदब  से मुस्कराएं

और नहीं तो उसके हाँ में हाँ मिलाएं ।

वैसे उसकी हैसियत अब भी कोई खास नहीं थी

 परंतु,जो कुछ था सो वही पचा नहीं पा रहा था ।

असल में दूसरों पर छा जाने की इच्छा

नया नहीं है

युग-युग से लोग इसी कारण

आपस में जूझते रहे

छोटी-छोटी बातों पर युद्ध तक करते रहे

वरना क्यों होता महाभारत?

क्यों होता इतना नरसंहार ?

यदि दुर्योधन छोड़ देता अहंकार

पाण्डव नहीं करते व्यर्थ ही प्रदर्शन

नव निर्मित माया महल का,

वे यद्यपि  बन चुके थे नृप

लेकिन चक्रवर्ती होने का लोभ था

युद्ध तो जीत गए

परंतु, अपने से हारते चले गए

परिणाम कितना भयावह था?

इसलिए कहता हूँ

मत पड़िए यशोलिप्सा में

यह है दुखद और अत्यंत घातक

अंत-अंत तक पीछा करती है

और आप परेसान रह जाते हैं

हम सुखी रहते हैं तभी तक

जबतक किसी और पर निर्भर नहीं हैं

जैसे ही हम करने लगते हैं उमीद

 कि कोई  करे तारीफ

हम अपने आप को किसी और के हबाले कर देते हैं ,

और वहीं से शुरु हो जाता है हमारे कष्टों की शृंखला

हम दुसरों के मूल्यांकन को देते हैं तरजीह

और इस तरह गवाँ देते हैं अपना सबकुछ

सुख,शांति और आत्मसम्मान भी ।

मत करिए परवाह

कि कौन क्या सोचता है आपके लिए

आप जो हैं सो हैं

आप सत्य थे,हैं और रहेंगे ।

फिर किस बात का करते रहें बबाल

क्यों दूसरे के चक्कर में नष्ट कर लें

अपना सुख,शांति

क्यों खोकर अपनी मौलिकता

ब्यर्थ करें आडंवर?

छोड़िए इन बातों को

क्या धरा है इस सब में ?

खुद को पहचानिए

तभी मिलेगा विश्राम

चिरंतन शांति

भूल जाइए सारे वैमनस्य के भाव

सब अपने ही लगने लगेंगे

और आप रह सकेंगे प्रसन्न

बिना किसी यत्न के

लोग क्या कहेंगे?

लोग क्या करेंगे?

हमारे बारे में कौन क्या सोचता है ?

जबतक इनबातों में उलझे रह जाएंगे

तबतक इच्छाएं  आकार लेती रहेंगी

और हम घुमते रह जाएंगे ।

हम वैसा कुछ करें

 जिस से

लोगों में हमारी शान हो

सब हमारे पीछे दौड़ते रहें

चारो तरफ फैल जाए हमारा नाम

बस इसी सब में हम लगे रह जाते हैं ,

यश की लिप्सा बढ़ती ही जाती है

हम सब कुछ कर लेते हैं जो हमारे वश में था

जिस से हमारी प्रशंसा हो

लोगों में जयगान हो

परंतु यहाँ क्या रहा है असालतन?

कुछ भी नहीं

हम खुद भी नहीं,

एकदिन चले जाते हैं अकेले

सबको छोड़कर

फिर न तो यश होता है न अयश

बाजार की तरह सब कुछ उजड़ जाते हैं ।

आखिर यशलिपसा है क्या?

बस एक नशा मात्र

और कुछ भी नहीं,

इसी चक्कर में कितने गवाँ चूके  प्राण

धन,स्वास्थ्य और संतति

अंततः रह गए निराश

कारण लिप्साओं का कोई अंत है ही नहीं

चाहे वह धन का हो

मान का हो

या यश का हो



रबीन्द्र नारायण मिश्र

२२.५.२०२०

mishrarn@gmail.com

मंगलवार, 19 मई 2020

सत्यम् शिवम् सुंदरम्


सत्यम् शिवम् सुंदरम्



आज-कल

लोग बेचैन हैं

जिसे देखिए वही है अस्तव्यस्त ,

वैसे तो मुलाकात होती ही नहीं

पर सामने आ ही गए

तो बड़बड़ा उठेंगे-

क्या करें

उलझनों में फँसा हूँ

मरने की भी फुर्सत है नहीं ।

पर यह दौर-धूप

दे नहीं सका सुकून

और हम  चलते रह गए बेफजूल

एक-एक पैसे का हिसाब में मसगूल

आस-पास से कटते चले गए

पता भी नहीं चला

कि सामने वाला पड़ोसी

कब गुजर गया?

कब हमारे बाल उजले हो गए?

हम तो सुलझाने के प्रयास में

उलझते ही रह गए,

सब कुछ लगाकर दावपर

खुद हाशिए पर रह गए

और एक दिन हम  चल पड़े

खाली हाथ दुनिया छोड़कर

सब कुछ धरे ही रह गए ।

नहीं मिल सका विश्राम पल भर

सुख-शांति दुर्लभ रह गए

आखिर ऐसा हुआ क्यों ?

क्यों कि

हम आत्मकेन्द्रित रह गए

यदि दूसरों की

उपलव्धियों से सुखी होते

आस-पास निर्मित घरों से

होते वैसे ही प्रसन्न

जैसे थे अपने गृह प्रवेश के दिन ।

तो बात ही कुछ और होती ।

यह समग्र भावना

हमें पहुँचा सकती थी

स्वर्ग के द्वार तक,

परंतु हमने खुद ही कर दिया है पटाक्षेप

खुद को कर दिया है सीमित

 छोटे से दायरे में

और कहते फिर रहे  

कि क्या करूँ?

 मन लगता नहीं है

कैसे लगेगा?

जिन्हें हम अपना समझते रहे

वे पास रहे ही नहीं

और जो हैं वे तो

कभी अपने थे ही नहीं

पर क्या करिएगा?

यह जीवन है

जैसे-तैसे गुजर जाएगा

लेकिन वह खुशी,वह आनंद जो आप

को मिल सकती थी

उसे आपने खुद ही गवाँ दिया

इसलिए ही

अंत-अंत तक हम रह गए

अधूरे,असंतुष्ट और अतृप्त

क्योंकि

 सर्वस्व समर्पण के बिना

असंभव है शांति

और अशांत मन में

व्यर्थ है सुख की कामना

जरुरी है कि

हम खुद को करें

श्रिष्टि से एकलय

सबमें दिखे आत्मभाव

सत्यम् शिवम् सुंदरम्

जीवन मंत्र हो

सर्वत्र सुख समृद्धि हो

कल्याण हो सबका यही अरमान हो ।

रबीन्द्र नारायण मिश्र

19.5.2020

mishrarn@gmail.com

सोमवार, 18 मई 2020

आल्हाबला


आल्हाबला





ओहि घटनाकेँ कमसँ कम ५५ वर्ष भेल होएत । हम मोसकिलसँ दस वर्षक रहल होएब । जतबे जोरसँ हम आल्हा सुनबाक प्रयास करी ततबे सतर्कतासँ हमर बाबूजी ओकर विरोध करितथि आ जँ पता लागि जानि जे हम ओतए गेल छी तँ तुरंत ओतए पहुँचि हमरा ओहिठामसँ लेने अबितथि । ओहि समयमे हुनकर ई सभ करबाक एकमात्र उद्येश्य रहनि जे हम पढ़ी-लिखी, आओर किछु नहि करी । मोनकेँ एमहर-ओमहर नहि लगाबी । मुदा आल्हाक प्रति हमर आकर्षण ततेक जबरदस्त छल जे हम कहुना-ने-कहुना ओतए जेबाक ब्योंत कइए ली । कैकबेर सफल रही,कैकबेर पकड़ा जाइ । मुदा तेँ आल्हा सुनबासँ बाज नहि आबी ।

असलमे ओहि समयमे गाम-घरमे मनोरंजनक साधन बहुत सीमित रहैक । आइ-काल्हि जकाँ टेलेवीजन,मोबाइल नहि रहैक । सीनेमा,रेडिओ नहि रहैक । तखन तँ मनुक्ख मनोरंजन सद्यः निर्माण करैत छल जाहिमे शारिरिक संलिप्तता बहुत बेसी रहैत छलैक । लोक  छोटो-छोटो बातसभमे मनोरंजनक जोगार कए लैत  छल । कोनो बड़का आयोजन वा बहुत रास खर्चक प्रयोजन नहि होइत छलैक । तेँ गाम-घरमे आल्हा गाएब,नटुआक नाच देखब ,वा रामलीला देखब बहुत लोकप्रिय मनोरंजन होइत छलैक । आमक मासमे लोक दू-तीन मास कलममे मचानपर बिता लैत छल । आमक रखबारीक संगहि पिकनिक करबाक आनंद सेहो होइत छलैक ।  हाटक दिनक कहिओ काल बीड़ी कंपनीक प्रचारक हेतु नटुआसभ फिल्मी गाना गाबि-गाबि लोककेँ आकर्षित करैत छल आ रहि-रहि कए बीड़ीक वर्षा कएल जाइत चल । एहि तरहें लोककेँ बीड़ी पीबाक अभ्यस्त कए ओकर बिक्री बढ़ाओल जाइत छल । एहने माहौलमे  तत्कालीन ग्रामीण समाजमे मनोरंजनक सस्ता आ सर्वसुलभ साधनमेसँ एकटा छल आल्हा सुनब ।

इसकूलसँ कैकबेर हमसभ कोनो बहाना बना कए पहिने छुट्टी लए लैत छलहुँ । एकतारासँ पैरे झटकारि कए चलैत जखन जमुआरीसँ आगा बढ़ी तँ कैकबेर ढोलपर पड़ैत थाप सुनाइत । पैर अपने-आप आओर फुर्तीसँ आगा बढ़ए लागैत छल । घर पहुँचि झोड़ा राखि चोट्टे पहुँचि जाइत छलहुँ । कतए? जतए आल्हा भए रहल होइत । गर्मी मासक गाम-घरक एकटा सहज मनोरंजन छल आल्हा । आल्हा गेनिहार नटकेँ बेसी तामझाम नहि होइत छलैक , मात्र एकटा ढोल । बेसीकाल असगरे ओ ढोलकेँ पीटि-पीटि परोपट्टाक लोककेँ जमा कए लैत छल । एकाध बेर ओकरा संगे एकटा सहायक सेह देखिऐक । मुदा कमे काल ।

ढोलक थापक प्रतिध्वनि सुनि ई अंदाज लागि जाइत छल जे कतए जेबाक अछि । थोड़बे कालमे हम ओहि दलानपर पहुँचि जाइत छलहुँ। ओहिठामक माहौले फराक रहैत छल । सौंसे दलान लोक भरल रहैत छल । सभक मोनमे प्रसन्नता भरल देखाइत । आल्हाबला ओहिठामक हीरो होइत छल । हमरा सन-सन नेनासभक हेतु तँ ओ बहुत आदरणीय व्यक्त छल । कारण जकरे देखितिऐक ओएह आल्हाबलाक गुनगान करैत भेटैत । आखिर नेना तँ नेने भेल ।

अल्हा गाबए बला सामान्यतः अधबएसु होइत छल । कुल जमापूँजी एकटा ढोल । सामान्यतः असगरे गबैत छल । हँ जखन ओ तावमे अबैत छल आ जोशमे ढोलपर थापपर थाप पीटैत छल तँ ओकर छवि देखएबला रहैत छल । लगैत छल जेना हनुमानजीक साक्षात अवतार होअए । जखन जोशीला भाव प्रकट करैत ओ सुर-तान धरैत छल तँ लागए जे ओ ढोलपर आब छरपत तँ ताब । कैकबेर एकटा ठेहुन ढोलपर राखि ओ भावपुर्ण मुद्रामे गबैत-गबैत मूरीकेँ जोर-जोरसँ पटकैत छल । कानपर एकटा हाथ राखि सभक ध्यान आकर्षित करैत  छल-बाबू सुनो हमारी बात,एकदिन की नहीं लड़ाई गाबत बिति जाइ बरहमास.... ओकर संगीतमय अभिनयक मनमोहक कथोपथनसँ समस्त श्रोतागण मंत्रमुग्ध रहैत छलाह । पूरा दनान मिस परैत रहैत छल । केओ टससँ मस नहि होइत । बाह रे कलाकार! साँझ होबएसँ पहिने आल्हा समाप्त होइत छल । कैकबेर अड़ेर चौकपर तकरबाद ओ देखाइत । नेनासभ बहुत आदरभावसँ ओकरा देखैत आ ओकरासँ गप्प-सप्प करबाक चेष्टा करैत छल ।

आल्हा सुनबाक हेतु उपस्थित लोकसभ  एकदम बकोध्यान लगओने आल्हाबलाक संगे भावात्मक रूपसँ एकाकार भए जाइत छलाह । लगबे नहि करैत जे एतेक लोक ओतए जमा छथि । एहि तरहेम दससँ पनरह दिन धरि ई कार्यक्रम चलैत । अंतिमदिनक कार्यक्रममे अगिला कार्यक्रमक सूचना देल जाइत  जे काल्हिसँ फलना बाबूक ओहिठाम आल्हाक कार्यक्रम होएत । लोकसभ अपना ओहिठाम आल्हा करेबाक हेतु लाइन लगओने रहैत छलाह । हमसभ नेनामे सोचिऐक जे आल्हाबला कतेक योग्य आदमी अछि । सभटा आल्हा ओकरा कंठाग्र रहैक । केकबेर सुनिऐक जे ब्रह्माक लड़ाई जल्दी नहि गाओल जाइत छैक । ओकरा गेलासँ गाम-घरमे झगड़ाक संभावना रहैत छैक ,आदि,आदि । कहि नहि ई कतेक सत्य रहैक । जे रहैक,से रहैक मुदा एतबा तँ निश्चित सही रहैक जे आल्हा गायन ओहि समयमे गाम-घरक लोकसभक हेतु मनोरंजनक प्रमुख साधन छल । गर्मीक मौसममे दुपहरिआ काटबाक ई बढ़ियां जोगार छल । संगहि आल्हाबलाकेँ गुजर सेहो भए जाइत छलैक ।

बादमे कैक साल धरि ओ आल्हाबला हमर गाम नहि आएल। पता लागल जे ओ अपन डेराक लगीचेमे रहनिहार कोनो महिलाक संगे नेपाल दिस भागि गेल । की भेल,नहि भेल मुदा फेर कहिओ ओकर ढोलक थाप हमरा नहि सनाएल । हमहु पढ़बाक हेतु गामसँ बाहर चलि गेलहुँ । मुदा गाममे दोसर,तेसर आल्हाबला अबिते रहल आ आल्हा होइते रहल ।

शनिवार, 16 मई 2020

आत्मभय


आत्मभय

जरूरी नही कि

 हम जो देखते हैं वह वैसा ही हो,

हमारा अन्तर्मन घटनाओं का

कर देता है रुपांतरण ,

अपने हिसाब से

और अंततः सामने होता है

हमारे ही पूर्वाग्रहों का प्रतिफल।

कई बार छाया को

हम मान लेते हैं असलियत

और हम अपने मन में

पहले से ही व्याप्त भय के वशीभूत

करते हैं पलायन सत्य से,स्वयं से

क्यों कि सत्य स्वीकार नहीं सकते

और असत्य का कोई आस्तित्व होता ही नहीं

इसलिए

जबतक हम समझ पाते हैं

सत्य की मर्यादा और असत्य की व्यर्थता

तबतक समीप होता है जीवन का अंत

चारों तरफ होता है अज्ञानता का सम्राज्य

परंतु अहंकारवश,

हम ढूंढ़ते रह जाते हैं

उसी को

जो है आस्तित्वहीन ,

फिर कहते हैं 

त्राहि माम्,त्राहि माम् !

कहीं भी नहीं रह जाता है कुछ भी अवशेष

अंदर से बाहर तक विस्तृत

अनंत शून्य में

हम रह जाते है अकेले,विल्कुल अकेले

अपने ही कृत्यों से भयभीत ।

दिग्भ्रमित

असत्य को मान लेते हैं सत्य

फिर पूछते हैं-

मै कौन हू?”

और तबतक बहुत देर हो  जाती है

अब तो हमारी छाया भी

हमारा साथ नहीं देती है।

असल में भय का कारण कोई और नहीं

हम स्वयं हैं।

आज हम जो भी हैं

सब हमारे ही  चिंतन के प्रतिफल हैं,

हमारे ही पूर्वकृत कर्म

हमारा भविष्य बन है उपस्थित।

जिनका कोई आस्तित्व भी नहीं

कभी था ही नहीं,

हम उसी में आसक्त

और आत्मभय से त्रस्त

ढूंढ़ते रह जाते हैं,

अपनी अस्मिता,अपनी पहचान

और जीवन का अर्थ।



रबीन्द्र नारायण मिश्र

१६.५.२०२०

mishrarn@gmail.com


मंगलवार, 12 मई 2020

माया और मुक्ति


माया और मुक्ति



सभी जानते हैं कि

जीवन क्षणभंगुर है

कि इसका नाश होना ही है

कि मृत्यु के उपरांत कुछ भी

साथ नहीं ले जाना है

सब कुछ यहीं छूट जाना है ।

लेकिन आश्चर्य है कि

सब कुछ जानकर भी

हम जीवन भर ,

कुछ और कुछ और के

चक्रव्युह में फँसे रह जाते हैं

और अंत में खाली हाथ चले जाते हैं ।

ऐसा क्यों है?

क्यों नहीं हम समय रहते समझ पाते हैं

इस सब की व्यर्थता

और रह जाते हैं

इसी में लिप्त आजीवन ।

यही है माया

जिसमें अनुरक्त

हम रह जाते हैं अनभिज्ञ

जीवन के सत्य से

काम,क्रोध,लोभ के वशीभूत

गढ़ लेते हैं चतुर्दिक

नर्क ही नर्क ।



धर्म के नाम पर करते हैं

नाना प्रकार के छल -प्रपंच

लोगों को ठगते हैं

कि यह करो,वह करो

मिलेगा स्वर्ग

जहाँ रहोगे सुखी और संपन्न

परंतु,

ऐसा कभी कुछ होता नहीं है

स्वर्ग की कामना

लिए हम चले जाते हैं

दूर,बहुत दूर

जहाँ से कोई लौटकर आया नहीं

 यह कहने कि

उसे स्वर्ग मिला या नहीं ।

अज्ञानतावश

हम सुन नहीं पाते है

आत्मा की आवाज

कि

मैं यहीं हूँ

व्याकुल मुक्ति के लिए ।



रबीन्द्र नारायण मिश्र

१२.५.२०२०

mishrarn@gmail.com