नागरिकता संशोधन
कानून
2019
भारत के संसद के
दोनो सदनो ने संविधान द्वारा तय प्रकृया का पलान करते हुए अपार बहुमत से संसद के
हाल ही में संपन्न हुए शीतकालीन सत्र में
नागरिकता संशोधन कानून २०१९ पास किया है ।
इसके बाद बारत के माननीय राष्ट्रपतिजी ने इस कानून को अपनी मंजुरी भी दे दी है ।
भारत के राजपत्र में यह कानून प्रकाशित भी हो गया है । इस तरह यह कानून पूरे भारतवर्ष
में लागू हो गया है । इस कानून के लागू होते ही कुछ लोगों ने इसके खिलाफ भारत के
उच्चतम न्यायालय में चुनौती भी दिया है । इसके बाद माननीय उच्चतम न्यायलय ने
केन्द्र सरकार सहित सभी संवद्ध पक्षों को नोटीस जारी कर दिया है । २२ जनवरी २०२०
को इस मामले में आगे की सुनवाई होना तय है । फिर ऐसा क्या हुआ कि इस कानून को लेकर
पूरे देश में आग लगा हुआ है? विपक्षी दल खासकर कांग्रेस इसे
असंवैधानिक,सांप्रदायिक,मुस्लिमविरोधी
और न जाने क्या-क्या कहती जा रही है । क्या इस कानून के विरोधियों को भारत के
उच्चतम न्यायलय पर से भी विश्वास उठ गया है? क्या उन्हें यह
पता नहीं है कि संसद में तमाम विपक्षी दलों ने अपने तर्क-कुत्रक द्वारा इस कानून
का विरोध किया था । बाबजूद इसके अपार बहुमत से यह कानून संसद के दोनो सदनो में
पारित हो गया । इस सब के बाबजूद कुछ विपक्षी दल असमाजिक तत्वों का सहयोग लेकर सड़क पर उतड़ चुके हैं और हर संभव प्रयास
कर समाज के एकवर्ग को भड़काने में लगे हुए हैं । क्या सचमुच वे लोग लोकतंत्र से
अपना विश्वास खो चुके हैं ? अन्यथा संसद में बहुमत से पास इस
कानून को इस तरह सड़कों पर विरोध नहीं करते वह भी तब जबकि इसके विरुद्ध माननीय उच्चतम
न्यायलय सुनवाई कर रही है?
इस कानून के
विरुद्ध में सबसे पहले उत्तर-पूर्व के राज्यों से उठना शुरु हुआ । वहाँ के राज्यों
खासकर आसाम में विदेशी घुसपैठियों की समस्या बहुत पुरानी है । न्यायालय के आदेश पर
आसाम मे राष्ट्रीय नागरिकता पंजी(NRC)वहाँ पर हाल ही में बनकर
तैयार हुआ जिसमें करीब उन्नैस लाख विदेशी चिन्हित किये गए हैं जो गलत तरीके से
सालों से वहाँ जमे हुए है । पहले तो अनुमान था कि यह संख्या चालीस लाख से कम नहीं
है । लेकिन जब तय प्रकृया द्वारा उन्नीस
लाख लोग राष्ट्रीय नागरिकता पंजी(NRC)से बाहर रह गए तो तभी से कुछ लोगों ने इसके पक्ष और विपक्ष में आबाज उठाना
शुरु कर दिया था । सही बात तो यह है कि सायद ही कोई पक्ष इस तरह तैयार राष्ट्रीय
नागरिकता पंजी(NRC) से संतुष्ट हो । इसी परिस्थिति से गुजर
रहे वहाँ के समाज को कुछ दन बाद ही नागरिकता संशोधन कानून का सामना करना पड़ा ।
जाहिर है कि वहाँ के लोगों में पहले से ही विद्यमान अनिश्चितता का माहौल और गहरा
गया । चारो तरफ अराजकता का माहौल बन गया। हिंसा होने लगी । सरकारी संपत्तियों को
जलाया जाने लगा । केन्द्र सरकार ने यथासंभव कार्रवाई कर वहाँ के लोगों का गुस्सा
शांत करने में लग गई ,पर देखते ही देखते यहा आंदोलन पूरे देश में फैल गया ।
दिल्ली में और देश
के अन्य प्रान्तों में यह आंदोलन अत्यंत तीव्र गति से फैलता गया । दुख की बात यह
है कि आंदोलनकारियों ने राष्ट्रीय संपत्तियों का भारी नुकसान किया । जहाँ-तहाँ
आगजनी,लूटपाट का माहौल बना दिया गया । जाहिर है इस परिस्थिति में पुलिस हाथ पर
हाथ धरे नहीं बैठ सकती थी । आंदोलनकारियों के हिंसक व्यवहार का प्रतिरोध कानून के
राज्य को बनाए रखने के लिए अनिवार्य था । सो पुलिस को जहाँ-तहाँ शक्ति प्रयोग करना
पड़ा । इसके बाद पुलिस को गाली देने का दौड़ प्रारंभ हो गया । संभव है कि लगातार
चल रहे उग्र और हिंसक आंदोलन को सम्हालने के क्रम में पुलिस से भी गल्ती हुई हो
परंतु इसके लिए आंदोलनकारी ज्यादा जिम्मेदार हैं । आखिर इस कानून में ऐसा क्या है
कि उनको इस तरह त्वरित और उग्र कार्रवाई करने के लिए विवश होना पड़ा जबकि इसी
मामले पर उच्चतम न्यायलय में मामल लंवित है और सुनवाई की तारिख भी तय हो चुकी है ।
क्या यह उचित नहीं थT कि विपक्षी दल और आंदोलनकारी लोग
उच्चतम न्यायलय के फैसले का इंतजार करते? इस से तो यस साफ
स्पष्ट होता है कि ये लोग हर हाल में हंगामा खड़ा करना चाहते थे । पता था कि उनके विरोध प्रदर्शन में कोई कानूनी दम नहीं
है। फिर भी वे मोदी सरकार के विरुद्ध इस अवसर को पूरी तरह इस्तमाल कर लेना चाहते
थे । चूंकि लोकतांत्रिक तरीके से वे इस सरकार का सामना नहीं कर पा रहे हैं ,अस्तु, उनको लगा कि सरकार को बदनाम करने का ,इसे अस्थिर करने का यह स्वर्णिम अवसर लगता है । इस तरह सुचिंतित कार्रवाई
कर इनलोगों ने देश का माहौल बिगाड़ने का काम किया है ।
जिस तेजी से यह
आंदोलन पूरे देश में फैलता चला गया वह
अपने-आप में रहस्यात्मक है । कारण यह कानून बेशक लागू हो गया है परंतु व्यवहारिक तौर पर किसी पर इसका प्रतिकूल प्रभाव
पड़ा हो ऐसा संभव नहीं लगता है । तमाम
विपक्षी नेता इस प्रकार एक स्वर से इस कानून के खिलाफ खड़े हो गए हैं जैसे कि कोई
बहुत बड़ा अनर्थ हो गया हो । वास्तविक में इन सबको बोटबैंक बनाने का एक सुंदर अवसर
लग रहा है । समाज के एकवर्ग को भयभीत कर ,कानून की गलत-सलत एवम् मनमानी व्याख्या कर भ्रम की स्थिति पैदा
करने में वे तात्कालिक रूप से सफल होते नजर आ रहे हैं । परंतु,राष्ट्रीय एकता को अकारण हो रहे क्षति को कोई सोच नहीं पा रहे हैं ।
देश-विदेश में भारत की प्रतिष्ठा को अकारण खराब किया जा रहा है । पश्चिम बंगाल की
मुख्यमंत्री ने तो संयुक्त राष्ट्र तक को दखल देने का आग्रह कर दी है । साथ ही
उन्होंने और कई और मुख्यमंत्रियों ने इस कानून को अपने राज्य में लागू नहीं करने
का एलान कर दिया है । लेकिन सबसे आगे तो केरल के मुख्यमंत्री ने राज्य के
विधानसभामें इस कानून के खिलाफ प्रस्ताव भी पास करबा दिया है। यह कितना
दुर्भाग्यपूर्ण है कि दिन-रात संविधान की दुहाई देनेवाले राजनेता स्वयं संवैधानिक प्रावधानों
का कुछ भी ख्याल नहीं कर पा रहे हैं । यह सर्वविदित तथ्य है कि राज्य की विधानसभा
इस मसले पर प्रस्ताव पास नहीं कर सकती है
क्यों कि नागरिकता के विषय में संसद ही
कानून बना सकती है । फिर कैसे कोई राज्य संसद द्वारा विधिवत पास कानून को लागू
नहीं करने का सरेआम एलान कर सकता है और साथ ही स्वयं को संविधान का रक्षक घोषित कर
सकता है?
यह भी कम आश्चर्य
की बात नहीं है कि नागरिकता संशोधन कानून का हिंसक विरोध उनही राज्यों में हुआ
जहाँ बीजेपी या उसके सहयोगी/ समर्थक दलों की सरकारे हैं । इस तरह से
खास-खास जगहों पर हिंसक घटनाएं घटित होना प्रायोजित ही लगती हैं । उसमें शामिल वे
लोग ही हो सकते हैं जिनका इस देश की संपत्तियों को वर्वाद करने में तनिक भी दुख
नहीं होता है,जिन्हें इस तरह के आचरण से चतुर्दिक भय का
वातावरण कायम करना ही मूल उद्देश्य है,जो भारत की तरक्की
नहीं देखना चाहते हैं,जो दुनिया में भारत को बदनाम करना
चाहते है,इसकी एक गलत छवि बना देना चाहते हैं । ताज्जुब की
बात है कि यह सब इतने तेजी से हुआ । ऐसा लग रहा है कि वे लोग घात लगाए मौका का
पहले से ही प्रतीक्षा कर रहे थे । अब जब कई राज्यों में हिंसा फैलाने वाले लोग पकड़े जा रहे हैं तो उनमें
विदेशी ताकतों की संलिप्तता स्फष्ट हो रही
है । जनतंत्र में विरोध करने का,सरकार से अलग राय रखने और
व्यक्त करने का अधिकार देश के नागरिक को है । इस में कोई दो राय नहीं हो सकता है ।
परंतु विरोध शांतिपूर्ण ढ़ग से व्यक्त किया जाना चाहिए । किसी को हिंसक आंदोलन को
चलाने का या समर्थन देने का अधिकार नहीं है । अगर इस तरह हिंसक गतिविधि चलता रहा
तो देश में लोकतंत्र कबतक सुरक्षित रह पाएगा?
इन तमाम विवादों
में उत्तर प्रदेश की सरकार ने एक अच्छा मिसाल कायम किया है । जो लोग सार्वजनिक
संपत्तियों को नष्ट करने में शामिल पाए जा रहे हैं उन्ही लोगों से उसका हर्जाना
अदा करने का आदेश दिया जा रहा है और सुनते हैं कि कुछ लोगों ने दिया भी है । इस
तरह की कार्रवाईके बाद उत्तर प्रदेश में हिंसक विरोध कमा है । उपद्रवी भयभीत हैं ।
उन्हें लगने लगा है कि गलत करने वालेलोग कानून की गिरफ्त से बँच नहीं पाएंगे ।
अन्य राज्यों में भी ऐसा ही हो तो ऐसे अराजक तत्वों को हिंसक गतिविधि करने का साहस
नहीं होगा और वे भाग खड़े होंगे ।
सबाल ये भी है कि इस कानून का विरोधकरनेवाले लोग
क्या वास्तविक रूप से परेशानी में पड़ गए हैं । क्या इस कानून ने उनसे कुछ भी छीन
लिया है जो अबतक उनको सुलभ था ?इस कानून का सबसे पहले आसाम में विरोध
होने का मूल कारण आसामी लगों के मन में उपजा यह भय है कि इस से वंगलादेश से आए विदेशी लोगों का वहाँ
बसना आसान हो जाएगा जिसे उन लोगों का सांस्कृतिक एवम् भाषायी विरासत खतरे में पर
सकता हे । सभी जानते हैं कि इनही कारणों से आसाम में लंबे अवधि तक आंदोलन हुआ था
जिसका अंत आसाम समझौता द्वारा संभव हो सका । आसाम समझौते के तहत २४ मार्च १९७१ तक वहाँ बसे हुए लोगों को भारत की नागरिकता प्राप्त
करने के उपयुक्त माना जा सकता है , लोगों का नागरिकता पंजी
में नाम अंकित हो सकता है जबकि नये कानून के अनुसार ३१ दिसम्बर २०१४ तक भारत में आ चुके
शरणार्थियों को पात्रता मिल जाती है ।
नागरिकता संशोधन
कानून २०१९ में यह प्रावधान है कि ३१ दिसम्बर २०१४ तक पाकिस्तान,बंगला
देश और अफगानिस्तान से आकर भारत में शरण लेने वाले वहाँ के उत्पिड़ित अल्पसंख्यकों को भारत की
नागरिकता दी जा सकती है । इस कानून का विरोध करने वालो का कहना
है कि यह कानून भारतीय संविधान की मूल आत्मा- धर्म निरपेक्षता के खिलाफ है । यह संविधान के अनुच्छेद १४ में दिए गए
समानता के सिद्धान्त के भी खिलाफ है । उनके कहने का सारांश यह है कि अन्य धर्मावलंवियों
के तरह पाकिस्तान,वंगलादेश और अफगानिस्तान से आए हुए
मुसलमानों को भी इस कानून के तहत नागरिकता प्राप्त करने दिया जाए । नागरिकता कानून
में इस संशोधन करने का मूल तात्पर्य ही इन देशों में प्रताड़ित हो रहे अल्पसंख्यकों को राहत
देना है । नागरिकता कानून के संशोधित प्रवधानों के तहत पाकिस्तान,वंगलादेश और
अफगानिस्तान से आए प्रताड़ित अल्पसंख्यकों को छ: वर्षों की
छूट मिल जाती है। जबकि सामान्यतः इस तरह नागरिकता प्राप्त करने के लिए भारत में
एगारह वर्ष रहना जरूरी होता है,इस कानून के तहत यह अवधि पाँच
वर्ष कर दी गई है । सोचने की बात है विशेष
रूप से सताए गए लोगों के हित में बस इतने से अंतर के लिए, इस
तरह का बबाल खड़ा कर देना क्या उचित है? इस कानूनी संशोधन
में ऐसा कुछ भी नहीं है जो भारत के किसी भी नागरिक के खिलाफ हो । एक अनुमान के मुताबिक संशोधित अधिनियम के तात्कालिक लाभार्थी 31,313
लोग होंगे- 25,447 हिंदू, 5,807 सिख, 55 ईसाई, 2 बौद्ध और 2
पारसी। निश्चय ही इतने बड़े भारत देश के लिए यह संख्या बहुत नगण्य
है ।
सरकार और प्रवुद्ध
नागरिकों द्वारा निरंतर हो रहे प्रयास के बाबजूद आंदोलनकारी जनता में इस कानून के
प्रति भ्रम फैलाने में लगे हुए हैं । वे वारंबार कहते जा रहे हैं कि भारत में रह
रहे मुस्लिमों के नागरिकता पर समस्या हो सकती है । एनपीआर राष्ट्रीय जनसंख्या पंजी
और राष्ट्रीय नागरिकता पंजी का हबाला देकर मुस्लिमों को डराया जा रहा है । यह सब
तब भी हो रहा है जब प्रधाममंत्रीजी ने खुद कईबार स्पष्ट कर दिया है कि राष्ट्रीय
नागरिकता पंजी पर अभी कोई निर्णय नहीं हुआ है और इसका नागरिकता संशोधन कानून से
कोई लेना-देना नहीं है।
यहाँ यह जान लेना उपयुक्त होगा कि एनपीआर
‘देश के सामान्य निवासियों’ की एक सूची है। गृह मंत्रालय के मुताबिक, ‘देश का सामान्य
निवासी’ वह है जो कम-से-कम पिछले छह महीनों से स्थानीय क्षेत्र में रहता हो या
अगले छह महीनों के लिये किसी विशेष स्थान पर रहने का इरादा रखता है। देश में लोगों
की संख्या का रजिस्टर, जो गांव, कस्बे,
तहसील, जिला, राज्य,
राष्ट्रीय स्तर पर तैयार होता है। 2010 में
यूपीए शासन ने इसे लागू किया था।
एनपीआर का विचार यूपीए शासनकाल के समय
वर्ष 2009 में
तत्कालीन गृह मंत्री पी. चिदंबरम द्वारा लाया गया था। लेकिन उस समय नागरिकों को
सरकारी लाभों के हस्तांतरण के लिए सबसे उपयुक्त आधार प्रोजेक्ट का इससे टकराव हो
रहा था। एनपीआर के लिए डाटा को पहली बार वर्ष 2010 में
जनगणना-2011 के पहले चरण, जिसे हाउस
लिस्टिंग चरण कहा जाता है के साथ एकत्र किया गया था। वर्ष 2015 में इस डाटा को एक हर घर का सर्वेक्षण आयोजित करके अपडेट किया गया था। इसे
अपडेट करना कानूनी बाध्यता है।राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर यानी एनपीआर के लिए
जानकारियां जुटाने के तरीके में केंद्र सरकार में कुछ बदलाव किए हैं। अब एनपीआर
में बायोमैट्रिक जानकारियां नहीं मांगी जाएंगी और न ही किसी प्रकार का कोई
दस्तावेज लिया जाएगा। इसे पूरी तरह से स्वघोषित रखा जाएगा।
नागरिकता (संशोधन)
अधिनियम,
2003 (क्रमांकित) 2004 का अधिनियम 6 के तहत केन्द्र सरकार भारतीय नागरिकों का राष्ट्रीय पंजी तैयार करबा सकती
है ।1955 का नागरिकता अधिनियम भारत के प्रत्येक नागरिक के
लिए अनिवार्य पंजीकरण और उसे राष्ट्रीय पहचान पत्र जारी करने का प्रावधान करता है। 2003
के नागरिकता नियम, 1955 के नागरिकता अधिनियम
के तहत बनाए गए, राष्ट्रीय नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर की
तैयारी का तरीका बताते हैं। एनआरसी में अवैध अप्रवासियों की पहचान करने की बात कही गई है, चाहे
वे किसी भी जाति, वर्ग या धर्म के लोग हों । एनआरसी बहरहाल
सिर्फ असम में लागू है जबकि सीएए देशभर में लागू होगा।
लेखक-रबीन्द्र नारायण मिश्र
Email:mishrarn@gmail.com
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