शनिवार, 11 मई 2019

जीवन संघर्ष


जीवन संघर्ष



जन्म से मृत्यु तक हम किसी न किसी प्रकार की समस्या से जूझते रहते हैं । हमें जो कुछ प्राप्त है उसे बँचा कर रखने के लिए संघर्ष करते रहते है। जो हमें प्राप्त नहीं है उसे प्राप्त करने के लिए प्रयास करते रहते हैं। यही जीवन है । जबतक सााँस चल रही है हम प्रयत्नशील रहते हैं,रहना भी चाहिए । जो हमें प्राप्त है , अगर हम उसी से संतुष्ट हो कर हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाएंगे तो हमारा विकास रूक जाएगा । आज जो कुछ हम हैं वह कल तक हमारे द्वारा किए गए प्यासों का ही परिणाम है । अगर हम आगे भी कुछ कर गुजरना जाहते हैं,चाहते हैं कि हमारा नाम भी उनलोगों में सुमार किया जाए जिन्होंने इतहास रचने का काम किया है तो उसके लिए निरंतर प्रयत्न की आवश्यकता है । उपलव्धि जितनी बड़ी होगी उसके लिए संघर्ष भी उतना ही घना होगा। जीवन में विजय के लिए कोई लघुपथ नहीं हो सकता है ।

बहुत कम लोग होते हैं जिन्हे सबकुछ जन्मजात ही मिला होता है । फिर भी ऐसे लोगों को भी संघर्ष करना पड़ता है। क्यों?  इसलिए ताकि वे जहाँ हैँ,जो कुछ उन्हें मिला हुआ है वह छिन न जाए । वैसे भी विना प्रयत्न के हमें यदि कुछ मिल भी जाता है तो उसमें वह आनंद नहीं होता हे जो हमें कठन परिश्रम से प्रयत्नपूर्वक मिलता है । प्रयत्नशील रहना इसलिए भी जरुरी है कि हम इसके बिना व्यर्थ हो जाते हैं । हमारी शक्तियाँ कुंद हो जाती हैं । हम दूसरों का हक मारने में लग जाते हैं । सबाल यह है कि जो चीज हम स्वयं प्रयास कर प्राप्त कर सकते हैं ,उसके लिए दूसरों के तरफ क्यों मुखातिब हों? क्यों नहीं अपनी प्रतिभा के सदुपयोग से मनोवांछित फल प्राप्त करें? इस तरह हम कह सकते हैं कि संघर्ष हमारे जीवनमें निखार लाती है,हमारे मूल्यों को अर्थपूर्ण करती है और हमें उर्जावान बनाती है जिसके सदुपयोग करने से हम पुरुषार्थ की पराकाष्ठा तक पहुँच सकते हैं।

समाज में बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो जीवन भर संघर्ष करते हैं ,फिर भी खाली हाथ रह जाते हैं । योग्यता और पूँजी के अभाव में ऐसे बहुतेरे लोग अकुशल मजदूर के रूप में जीवन भर परिश्रम करते हैं । लेकिन दुर्भाग्य है कि वे आज के जीने के संघ्रष से ही जूझते रह जाते हैं । उन्हें कल के लिए सोचने की फुर्सत ही नहीं होती है। सोचकर भी क्या कर  लेंगे? इसलिए यह सोचना भी वाजिब है कि  हमारे मानवीय मूल्यों को भी समाज में विद्यमान आर्थिक असमानता ने प्रभावित किया हुआ है । सोचने की बात है कि जो लोग दिनभर के कठिन परिश्रम के बाबजूद अपने मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति भी नहीं कर पाते हैं उनके लिए तमाम लोकतांत्रिक अधिकारों का क्या माएने रह जाता है? संघर्ष फलित हो और लक्ष्यभेदी हो इसके लिए भी उचित सामाजिक,आर्थक परिवेश जरूरी है । तमाम दाबों के बाबजूद हमारे समाज से गरीबी ,अशिक्षा गई नहीं है,अपितु अभी भी ऐसे लोगों से हमारा समाज भरा हुआ है जो ठंढ में बिना कपड़ों के रहते हैं ,जिनके बच्चे फूटपाथ पर पलते हैं और माताएँ अपने शिशुओं को भूखा छोड़कर किसी निर्माणाधीन भवन में मजदूरी करती हैं । ऐसी विवशताओं से मुक्ति कौन दिलाएगा? यह एक गंभीर प्रश्न है?क्या कभी इनके संघर्षों का कभी भी पूर्णविराम होगा?

हम सभी एक सीमित समय के लिए इस संसार में आते हैं । परिस्थिति और भाग्य के अनुसार कमोवेश सभी को किसी न किसी प्रकार से संघर्ष करना ही पड़ता है । लेकिन हमें यह भी सोचना चाहिए कि हमारे प्रत्नों का समाज के अन्य लोगों के जीवन पर क्या प्रभाव हो रहा है? हम अपने पीछे क्या छोड़ जाएंगे? क्या आने वाली पीढ़ी को हम एक बेहतर पृष्ठभूमि दे पाएंगे ? समाज में अभावग्रस्त एवम् अशिक्षित लोगों को भी विकास करने का पूरा अवसर प्राप्त हो और संवैधानिक एवम् कानूनी अधिकार कागज के पन्नों तक ही सिमटा नहीं रह जाए,इसके लिए हम सभी प्रयत्नशील हों । सौंदर्य और संपन्नता से भरपूर इस संसार में कोई भी सुख सुविधा से वंचित न रह जाए,यही हमारी चेष्टा होनी चाहिए । तभी हम अपने पूर्वजों द्वारा उद्घोषित वसुधैव कुटुम्वकम् को चरितार्थ कर पाएंगे ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें