सेवा निवृत्ति के बाद
अपने यहाँ बहुत पहले से ही
ब्रह्मचर्य,गृहस्थ,वाणप्रस्थ और सन्यास लेने की परंपरा रही है ।
एक समय के बाद बड़े-बड़े राजा सारा राजपाट अपने उत्तराधिकारी को सौंप कर वाणप्रस्थी
हो जाते थे , जंगल चले जाते थे । किसी न किसी रूप में यह सेवा
निवृत्ति ही था । जीवन में सभी को इस मोड़ पर आना ही होता है । चाहे वे नौकरी पेशा
हों,कृषक हों,व्यापारी हों । सरकारी नौकरी में तो सब की सेवा
निवृत्ति की आयु तय है। कोई चाहे कितना भी बड़ा अधिकारी क्यों न हो उस उम्र की साम
पार करते ही सेवा निवृत हो जाता है । परंतु अपने कार्य करने बाले लोग जैसे व्यापारी,किसान अपने मर्जी से और घर और स्वास्थ की हालात
को देखकर ही सेवा निवृत्त होते है ।
एक अवस्था के बाद शरीर स्वयं
जबाब दे जाता है । मन में विश्राम की ललक जगने लगती है । आँख से कम दिखता है । कान
से सुनना मुश्किल हो जाता है । कई लोगों को चलना-फिरना भी बंद हो जाता है । इस सब के
बाबजूद हम प्रकृति के इन संकेतों को समझने में कई बार देर करते हैं । परिणामतः हम व्यर्थ
के परेसानी में पड़ते रहते हैं ।
सेवा निवृत्ति कोई आकस्मिक
दुर्घटना नहीं है । सबाल है कि हमें क्या करना चाहिए ताकि इस हालात से सहजता से निपटा
जाए?सेवा निवृत्ति की तैयारी समय
रहते शुरु कर देना चाहिए । मसलन आपको रहने के लिए घर चाहिए। मकान खरीदते समय इस बात
का ध्यान रखना पड़ता है कि सेवा निवृत्ति के बाद कहाँ रहेंगे? बाद में कई बार योजना बदल जाती है । फिर भी एक
पूँजी तो हाथ में आ ही जाती है । इसे बेचकर आप जहाँ कहीं भी रहना चाहेंगे,नया घर खरीद सकते हैं । अगर नौकरी के शुरुआती दिनों में ही घर खरीद लिए जाते
हैं तो कर्जा का किस्त कम होता है और मासिक बजट पर उसका अपेक्षाकृत कम प्रभाव पड़ता
है । अगर यही काम हम बाद में करते हैं तो कई बार बहुत असुविधा हो जाती है । अगर आपकी
आयु ज्यादा हो गई है तो कई बार बैंक कर्जा देने से भी मना कर देते हैं । इसी तरह जीवन
में अन्य पारिवारिक,सामाजिक दायित्वों
को समय रहते हुए ही निपट लेना चाहिए ।
जीवन भर यथासाध्य धनोपार्जन
कर हम अब इस मोड़ पर पहुँच चुके होते हैं कि अब करने के लिए बहुत कुछ नहीं रह जाता
है । शेष रह जाता है तो वह है हमारी कामना जो
कभी समाप्त होने का नाम ही नहीं ले पाती है । परिणामतः हम अंत-अंत तक मोहपाश
में फँसे रह जाते हैं । हम खुद को विश्राम करने का वक्त ही नहीं दे पाते हैं । अपने
बनाए हुए मकरजाल में हम खुद ही फँसे रह जाते हैं । हमारी स्थिति वहुधा उस पंक्षी की तरह हो जाती है जो अपने पाँव
ऊपर करके सोता है, सायद इसलिए कि अगर आकाश गिड़ता है तो वे उसको थाम्ह लेंगे । है
न हासास्यापद स्थिति । सेवा निवृत्ति के बाद
कई बार ऐसा लगता है कि कई जरुरी काम नहीं कर पाए,कुछ अधूरे रह गए । लेकिन अब यह सब सोचते रहने
का वक्त नहीं है । जो कर सके उसी को संचित रखना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए । जो भी
पूँजी हमारे पास है उसे बचाकर रखना चाहिए ताकि वक्त पर काम आए।
जैसे सूर्य भगवान शाम होते-होते
अपनी प्रभा को समेट कर अस्ताचल चले जाते हैं वैसे ही हम भी जीवन के अंतिम पड़ाव पर
पहुँचकर अपने को समेट लेना चाहिए । यह नहीं की हम आवश्यक कर्तव्य नहीं करें,किंतु उलझे नहीं, मोह,माया से दूर होते
जाए । समय और परिस्थिति से तालमेल बिठाकर जीने की कला सीख लें । अनावश्यक सलाह न दें
। अपेक्षाएं कम कर दे। जो हम स्वयं कर सकते हैं सो करें लेकिन दूसरों से अपेक्षा नहीं
करें । पारिवारिक विषयों पर बाहरी व्यक्तियों के पास चर्चा नहीं करें । घर में अगर
थोड़ा बहुत उलट-पुलट भी हो जाता है तो व्यग्र नहीं रहें । ईश्वर ने सब कुछ सबको नहीं
दिया है । हमारे हिस्से में भी कुछ मिला, कुछ नहीं मिला । अब उसका क्या हिसाब करना है? जो मिला वही क्या कम है । हम अपने नीचे खड़े लाखों-करोड़ों
लोगों की ओर देखें । हमसे बहुत लोग पीछे दिखेंगे । जैसे बहुत सारे लोग आगे हैं ,वैसे बहुत लोग पीछे भी हैं। यह जीवन का क्रम है
। हमें सब कुछ सहजता से लेने की कला विकसित करनी चाहिए ।
जीवन का नाम चलते रहना है
। कई लोग जीवन पर्यंत काम करते रह जाते हैं,कभी थके हुए नजर नहीं
आते हैं । कार्य करते रहना ही उनका विश्राम होता है । इसलिए हम जहाँ
पहुँच गए वहीं से आगे चलना चाहिए। गीता में भगवान कहते हैं कि कोई भी एक भी
क्षण विना काम किए नहीं रह सकता है। भगवान
आगे कहते है कि उन्हें कुछ भी अप्राप्त नहीं है फिर भी वह निरंतर काम करते रहते हैं
। सेवा निवृत्ति का मतलब यह नहीं है कि हम व्यर्थ हो जाएं, हाथ पर हाथ रखकर बैठ
जाएं । अपितु यह ऐसा समय है जब हम अपने जीवन में अर्जित अनुभव और ज्ञान से समाज के दुखी,वंचित लोगों के कल्याण के लिए अपनी रुचि और सामर्थ्य
के अनुसार काम करें । उम्र के इस पड़ाव पर आकर सबसे जरुरी है मानसिक शांति । अशांतस्य
कुतो सुखम्! आपका मन शांत है तभी
सुखी रह सकते हैं । इसके लिए किए गए काम
के परिणाम में आसक्ति का त्याग बहुत जरुरी है । काम करते रहिए और फल की चिंता मत करिए।
यही सही माने में त्याग है । मा फलेषु कदाचन्।
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