मजदूर
भूख और अपमान से त्रस्त
वे छोड़ गए थे सबकुछ
अपना घर,गाँव और परिवार ।
इसलिए कि
अपने ही लोगों से प्राप्त
अपमान और यातनाएं
हो गई थी असह्य
सामने में परिवार था असहाय
अन्न-जल के बिना
बच्चे पत्नी और माता-पिता
भरण-पोषण के बिना बन चुके कंकाल ।
हारकर एकदिन
वह रातों-रात निकल पड़ा था
कुछ भी नहीं था पाथेय
न था रेल-बस का कोई इंतजाम
पैदल स्टेसन पर
पहुँच गया था जैसे-तैसे ।
एक नंबर प्लेटफार्म पर खड़ी थी
आठ डिब्बों वाली एक ट्रेन
जिसमें पहले से ही खचा-खच भरे थे लोग
साधारण डिब्बा में
बिना टिकट वह घुस गया था
पता नहीं कि
वह ट्रेन जाएगी कहाँ?
न उसे इस बात की परवाह थी
जहाँ जाना हो जाए
पर यहाँ से तो हटे ।
फिर तीसरे दिन
वह पहुँचा था मुम्बई
अर्द्धमृत
किसी सहयात्री ने दयाकर
साथ चलने को कहा था ।
समय कितना आगे बढ़ गया
आज बीस वर्ष हो चुके हैं
उसका परिवार मुम्बई का नागरिक है
वह किसी सेठ का नौकर है
अपने जैसे ही दस-बीस मजदूरों के साथ
किराये के छोटे से घर में रहता है ।
समय ठीक ही बीत रहा था
यदा-कदा आंदोलनकारी
कहते रहते थे-‘वापस जाओ’
पर वह वापस कहाँ जाता?
गाँव में सब कुछ कब्जा हो चुका था
उसके अपने ही लोग
उसे प्रवासी मानकर
सब कुछ ले चुका था ।
पर कौन जानता था?
कि एकदिन पूरे दुनिया को
कोरोना ले लेगा अपने गिरफ्त में
मुम्बई शहर उसे काटने दौड़ेगा
लाक डाउन में चली जाएगी उसकी नौकरी
और वह पैदल चल पड़ेगा
वापस अपने गाँव को ।
पर किस्मत भी क्या चीज है?
ट्रेन दरभंगा पहुँच तो गया
परंतु वह उसमें नहीं था
उस में था
उसका प्राणहीन शरीर ,
उसका छोटा सा शिशु
वारंबार प्रयत्न करता रहा
हिला डुलाकर उसको जगाता रहा
लेकिन वह हिला नहीं ।
तबतक ट्रेन आगे जा चुकी थी
स्टेसन खाली हो चुका था
शिशु रोता रह गया
प्राणहीन पिता के वगल में
परंतु कोई उसे बचा नहीं सका
और थोड़ी देर में वह भी सो गया
सद-सर्वदा के लिए
चिर निद्रा में ।
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