चलें प्रकृति के द्वार
आज कल लोग
घरों में बंद रहकर
खुद को तलाश रहे हैं ।
अभी तक
शहर के नामी-गिनामी रेस्तराओं में
सकुन ढूंरते थे,
काफी हाउस में दिनभर
दोस्तों के साथ समय बिताते थे ।
पंचसितारा होटलों में
जन्मदिन का उत्सव और
सादियों का वर्षगांठ मनाते थे ।
अब तो व्यर्थ लग रहा है यह सब
क्यों कि
सामाजिक दुरी बढ़ाने में व्यस्त हैं सभी
यह दूरी पहले ही क्या कम थी?
क्यों हो गई ऐसी मजबूरी ?
जो कुछ थे सुख-सुविधा के साधन
विषाणु से
सभी संक्रमित हो रहे है ।
आखिर ये विषाणु आए कहाँ से?
कैसे बने इतना शक्ति संपन्न?
कि
सारे वैज्ञानिक अविष्कार
व्यर्थ हो गए
कर नहीं पा रहे इसका प्रतिरोध ।
मानवता पर इतना बड़ा संकट
हमने ही
अपने ही कुप्रयासों से
खड़ा किया है ।
कदाचित हम समय रहते जग जाते
जीते और जीने देते
सभी जीव-जन्तुओं को,
रहने देते प्रकृति को
उसी तरह जैसे वे थे ।
तो संभवतः
यह दिन हमें नहीं देखना पड़ता
आज सब कुछ इतना बीरान नहीं हो जाता ।
आज सब खोजने लगे हैं
प्राचीन परंपराओं में निहित संयमी होने का अर्थ,
क्यों कि
सारे आधुनिक चिकित्सा सुविधाओं में भी
नहीं मिल रहा है जीवन मंत्र ।
विभीषिका इतनी जबरदस्त है
कि शहर के शहर
हो रहे त्रस्त,
कर रहे त्राहि माम्!
तथाकथित विकसित देश भी
अविकसतों की कतार में प्रतीक्षारत हैं ।
जिस से कि
कहीं भी मिल जाए
जीवन बचाने का कोई समाधान ।
परंतु ,
जीवन जो ईश्वर का है सद्यः वरदान
कौन दे सकता है?
कोई और कैसे बचा सकता है ?
यही तो सच्चाई है
जिसे समझने में देरी का अंजाम
भुगत रहे हैं सभी ।
सभी विकसित और अविकसित देश
हाथ फैलाए ऊपर बाले से
दुआ कर रहे हैं ।
आइए
हमसब मिलकर करें
पूर्वजों से प्राप्त मंत्रों का
फिर से आवाहन ।
शांत हो अग्नि,शांत हो वायु
शांत हो समस्त पृथ्वी!
ओम् !शांतिः! शांतिः!
इसी में है जगत का कल्याण
रुक जाएगा कोरोना
बच जाएगा शृष्टि का संहार
अगर हम पुनश्च
चलें प्रकृति के द्वार ।
रबीन्द्र नारायण मिश्र
01.05.2020
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