रविवार, 26 मई 2019

पुरषार्थ


पुरषार्थ





सोचिए जब बिजली नहीं थी,तो दुनिया की तस्वीर कैसी रही होगी? रातें कितनी भयावह रहती होंगीं। दूर-दूर तक रोशनी के लिए लोग तरस जाते होंगे । कहते हैं कि लोग कहीं-कहीं दीप जलाकर छोड़ देते थे ताकि पथिक को अंदाज चल जाता था कि दीप के आसपास कहीं आदमी हो सकता है । तबसे अबतक दुनिया कितनी बदल चुकी है? यह सोचकर आश्चर्य होता है । पर इसके पीछे क्या है?-उसका असीम पुरुषार्थ ।

मनुष्य ने अपने पुरुषार्थ से दुनिया का नक्सा ही बदल दिया है । लोग हजारों मील दूर बैठे अपने मित्रों से एसे बात करते हैं जैसे कि वे बगल में बैठे हों । हजारों मील की दुरी घंटों में तय की जा सकती है । इतना ही नहीं ,लोग पृथ्वी से लाखों कीलोमीटर दूर स्थित ग्रहों,नक्षत्रों पर पहुँच रहै हैं ।  वहाँ की आबोहवा का अध्ययन कर रहे हैं ।

आदमी के पुरुषार्थ का अंत नहीं है । वह ठान ले और लक्ष्य पर अडिग रहे तो कुछ भी असंभव नहीं है। लेकिन उसके लिए पर्याप्त धैर्य और निरंतर प्रयत्न की आवश्यकता है । ऐसे ही उदाहरण में एक नाम दसरथ माँझी का आता है । वह एक मामुली मजदूर थे । एकबार उनकी पत्नी विमार पड़ गई । उनको डाक्टर के पास ले जाना जरूरी था । लेकिन डाक्टर पहाड़ के उस पार रहते थे । अगर पहाड़ के बीचोबीच रास्ता होता तो वे वहाँ जलदी पहुँच जाते । लेकिन ऐसा नहीं हो सका । उचित इलाज नहीं मिल पाने के कारण उनके पत्नी का देहान्त हो गया । दसरथ माझी इस बात से बहुत दुखी हुए । उनके मन में यह बात बैठ गई कि पहाड़ के बीचोबीच रास्ता बनाना है । अगर ऐसा हो पाया तो कितने ग्रामीणों की जान बचाई जा सकती है । उसके बाद वे सालो इस काम में अकेले लगे रहे । औजार के नाम पर एक मामुली खुरपी का वे उपयोग करते थे । नित्य सुबह मजदूरी से लौटने के बाद वे इस काम में जुट जाते थे । लोग उनको पागल समझते थे । पर उनके ऊपर इन बातों का कोई असर नहीं पड़ा । वे अकेले दम पर पहाड़ तोड़ते रहे । आखिर वे अपने लक्ष्य को पाने में सफल रहे और पहाड़ के बीचोबीच रास्ता बना दिया । आज सारी दुनिया दसरथ माँझी को इस काम के लिए प्रशंसा करते हैं ।

ऐसे ही लोगों में श्री लक्षमण रावजीका नाम अकस्मात ध्यान में आ जाता है । श्री लक्षमण रावजी शुरु में मजदुरी करते थे । लेकिन उनके मन में हिन्दी के साहित्यकार बनने की ललक जगी । उन्होंने  स्वाध्याय करते-करते एमए तक की परीक्षा पास की ।  साथ ही हिन्दी भाषा में उत्कृष्ट कोटि की छब्बीस किताबें लिख डाली । इन किताबों को पढ़कर बड़े-बड़े लोग प्रभावित हुए । आज दुनिया भर में उनका नाम है । लेकिन आज भी वे दिल्ली के हिन्दी भवन के पास चाय की दूकान चलाते हैं । इतनी प्रसिद्धि मिलने के बाबजूद  उनमें कहीं भी अहंकार का नामो-निशान तक नहीं है ।

लेकिन दुख की बात यह है  कि इतने वैज्ञानिक चमत्कारों के बाबजूद हम अपने पड़ोसी को नहीं जानते हैं,उनसे बात नहीं करते हैं,उनकी कठनाइओं में भागीदारी नहीं करते  हैं । विज्ञान के युग में यह भावात्मक शून्यता हमें यह सोचने के लिए विवस कर रही है कि क्या हम सचमुच विकास कर रहे हैं ? क्या हमारी उपलव्धियाँ हमारी मनुष्यता पर कहीं भारी तो नहीं पड़ रही हैं?हमें यह समझना चाहिए कि जिस किसी में जिस भी रूप में पुरुषार्थ है,जो कुछ भी उपलव्धि है वह ईश्वर के असीम शक्ति की अभिव्यक्ति मात्र है । उसके कृपा के बिना हम शक्तिवान हो ही नहीं सकते हैं । अगर कोई महत्वपूर्ण उपलव्धि प्राप्त कर चुका है तो निश्चय जानिए उसके माध्यम से ईश्वर ही प्रकट हो रहे हैं । इसलिए हमें अपने पुरुषार्थ से प्राप्त सामर्थ्य का उपयोग जन कल्याण में ही लगाना चाहिए । तभी हम सुखी रह सकते हैं ।




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