क्रोध
मनुख भावुक प्राणी होइत अछि।
दैहिक आवश्यकताक पूर्तिक संगहि संग ओकर मनोवैज्ञानिक आवश्यकताक पूर्ति सेहो आवश्यक
अछि। जखन कियो केकरो दैहिक वा मानसिक कष्ट दैत अछि तँ ओकरा मोनमे क्रोधक
प्रादुर्भाव होइत छइ। अतएव क्रोधक हेतु आवश्यक थिक जे कियो केकरो कष्ट पहुँचबैक
संगहि ईहो आवश्यक जे कष्ट पहुँचेनिहारक पता होइक। अज्ञात बेकती द्वारा उत्पन्न
कष्ट किंवा स्वयं अपनेसँ भेल कष्टपर क्रोध नहि होइत अछि। उदाहरण स्वरूप अगर
दाढ़ी बनबए-काल गालक चमरी कटि जाए, खून बहि जाए वा हाथक लोढ़ा धोखासँ पैरपर खसि पड़ए आ
पैरक आँगुर थकुचा जाए तँ क्रोध नहि होएत अपितु पश्चाताप होएत जे एना बेसम्हार
दाढ़ी नहि काटक छल वा लोढ़ाकेँ सम्हारि कऽ रखबाक चाही छल। किंतु जँ कियो आन हमरा
पाथरसँ मारए किंवा मारबाक उपक्रमो करए तँ तामस धड़ दय भय जाएत।
क्रोधक भोजन थिक विवेक।
विवेके रहलासँ मनुख जानवरसँ फराक अछि। मनुख सोचि सकैत अछि। नीक-बेजाए केर विचार कए
सकैत अछि। किन्तु ई सभ काज विवेकसँ उत्पन्न होइत अछि। मुदा जाहि मनुखक विवेक नष्ट
भऽ जाइत छै ओ बहुत रास अनुचित कथा बजैत अछि एवम् कर्म आ अकर्मक बीच भेदभाव बिसैर
जाइत अछि। क्रोध अबिते नीक-सँ-नीक लोककक विवेक मरि जाइत छइ। आकृति बिगैड़ जाइ छै
एवम् रक्तचाप बढ़ि जाइ छइ। क्रोधावेगमे मनुख गड़बड़ काज कऽ लैत अछि। अर्थ-अनर्थक
भेद बिसैर जाइत अछि आ तँए सोभाविक रूपेँ विनास दिस अग्रसर भऽ जाइत अछि।
क्रोधक प्रवल वेगमे मनुख ईहो
नहि सोचि पबैत अछि जे ओकरा जे कष्ट पहुँचौलक तेकरा एहेन अभिप्राय रहइ वा नहि।
ऐप्रकारक सभसँ नीक दृष्टान्त चाणक्यक ओइ आचरणमे भेटैत अछि जखन किओ कुश गड़ि
जेबाक कारणेँ सभ कुशकेँ उखारि ओकरा जरिमे धोर देबए लगला।
केतेक बेर एहेन होइत अछि
पाथरसँ चोट लगलासँ लोक पाथरेपर चोट करए लगैत अछि। एहेन क्रोधकेँ जड़क्रोध कहल जाइ
अछि। कारण क्रोधीकेँ एतबो अन्दाज नहि रहै छै जे ओगलत स्थानपर गलत रूपेँ क्रोध कऽ
रहल अछि।
क्रोधक जन्म कष्टसँ होइत
अछि। सोभाविक अछि जे जेकरामे सहनशीलता जेतेक बेसी हेतै तेकरा क्रोध तेतेक कम हेतइ।
वर्तमान समयमे बढ़ैत महत्वाकांक्षा एवम् वैज्ञानिक विकासक कारणेँ पारस्परिक
टकरावक संभावना सेहो बढ़ि गेल अछि। जखन एक्के वस्तुक हेतु कएक गोटे प्रयत्नशील
हेता तँ संघर्ष अनिवार्य भऽ जाइ छइ तथा असफल रहनिहार बेकतीकेँ क्रोध होएब सोभाविक।
क्रोधमे लोकक आत्मसंयम समाप्त
भऽ जाइ छइ। ऐ अवस्थामे लोक बहुत रास अन्ट-सन्टबाजि जाइत अछि। परिणामस्वरूप
पुरान-सँ-पुरान सम्बन्ध ओ मित्रता नष्ट भऽ जाइ छइ। तँए उचित जे तामसमे गुम्म
भऽ जाइ। जँ कियो तमसाएल अछि तँ ओ अन्ट-सन्ट बाजि सकैत अछि, जे सुनि हमहूँ
उत्तेजित भऽ सकैत छी। परिणामत: मारि-पीट वा एहने कोनो अशुभ काज भऽ सकैत अछि। तँए
उचित जे जेतए उत्तेजना होइक तैठामसँ ससैर जाइ जइसँ अनर्गल कथा ओ काज देख हमरो
उत्तेजना नहि भऽ जाए।
क्रोधक सीमित ओ संयत प्रयोग
लाभकारी भऽ सकैत अछि। मानि लिअ जे कियो गोटे अहाँक टका रखने अछि आ लाख प्रयासक
अछैतो ओ टका आपस नहि कए रहल अछि तखन क्रोधक प्रयोग केलासँ भऽ सकैत अछि ओ बेकती टका
आपस कए दिए। परन्तु एहेन लाभकारी क्रोधकरबामे आत्मसंयमक प्रयोजन होइत अछि कारण
क्रोध करैत-करैत जँ सीमाल्लंघन भऽ गेल, बहुत रास तामस भऽ गेल तँ परिणाम अनिष्टकारी भऽ सकैत
अछि। टका तँ बुड़िये जाएत संगे ऊपरसँ मारियो लागि सकैत अछि।
क्रोधक प्रयोग प्रतिकारक हेतु
सेहो होइत अछि। जँ ट्रेनसँ यात्रा करैत कियो धक्का मारि दैत अछि किंवा ट्रेनसँ
धकिया कए निच्चाँ खसा दैत अछि तँ ओकरापर कसि कऽ तामस भऽ जाइत अछि। परिणामस्वरूप
हमहुँ ओकरा कोनो-ने-कोनो दण्ड देबए चाहैत छिऐ। यद्यपि ऐ बातक कोनो संभावना नहि
रहैत छै जे ओइ आदमीसँ दुबारा कहियो भेँट होएत वा नहि।
क्रोधक प्रयोगयदा-कदा आत्मस्वार्थ
सेहो होइत अछि। कारण जँ कियो बेकती अहाँकेँ कोनो प्रकारक क्षति पहुँचा दैत अछि तँ
अहाँक सोभाविक इच्छा रहैत अछि जे दुबारा फेर एहने क्षति नहि हो। तँए ओइ बेकतीपर
क्रोधक प्रयोग कए घटनाक पुनरावृत्तिकेँ रोकबाक प्रयास कएल जाइत अछि। ऐ प्रकारसँ
कएल गेल क्रोधमे आत्म रक्षाक भाव बेसी होइत अछि।
क्रोधक शिकार नीक-सँ-नीक लोक
भऽ जाइत अछि। कोनो आवश्यक नहि जे अहाँ कोनो गलती केनहि होइ आ तही कारणेँ अहाँकेँ
कोपभाजन होमए पड़ल हो। असल बात तँ ई थिक जे क्रोधित मनुखक दृष्टिमे जँ अहाँ कोनो
प्रकारसँ क्षति पहुँचेबाक चेष्टा कएल अछि तँ ओ क्रोधित भऽ जाएत। एहेन परिस्थितिमे
क्रोधसँ बँचबाक एक मात्र साधन सहनशीलता थिक।
क्रोध दुखक चेतन कारणक
साक्षात्कार वा परिज्ञानमे होइत अछि। अतएव जेतए कार्य कारणक सम्बन्धमे त्रुटि
होएतैक ओतए क्रोधमे धोखा भऽ सकैत अछि। दोसर बात जे क्रोध केनिहार लोक जेमहरसँ
क्रोध अबै छै तेम्हरे देखैत अछि। अपना दिस नहि देखैत अछि। क्रोधक ई प्रवल इच्छा
होइ छै जे जे बेकती ओकरा कष्ट देलक अछि ओकर नाश होइक मुदा ओ कखनो ई नहि सोचि सकैत
अछि जे ओ जे कऽ रहल अछि से अनुचित छै, किंवा तेकर की परिणाम हेतइ।
कखनो-कखनो लोक क्रोधमे अपने
माथ पटकए लगैत अछि। तेकर कारण जे हुनकर ऐ काजसँ हुनक निकट सम्बन्धी, जिनकासँ ओ क्रुद्ध
रहै छैथ, हुनका कष्ट होइ
छैन। तँए हेतु क्रोधमे जँ कियो अपन माथ पटकए किंवा स्वयंकेँ कहुना कष्ट दिअए तँ
बुझी जे ओ कोनो अपने बेकतीपर कुद्ध अछि।
कोनो बातसँ खौंझाएब क्रोधक
एकटा रूप छिऐ। एहेन बेकती मानसिक रूपसँ रोगग्रस्त होइ छैथ। ओ सामान्यत: छोट-मोट
गड़बड़ी भेलासँ खौंझा जाइ छैथ। केतेको बुढ-बुढानुसकेँ अहाँ कोनो गप्प कहियौ, सुनिते देरी ओ ठेंगा
लऽ कऽ दौग जाएत। ..क्रोधक ई रूप सामान्यत: वृद्ध वा रोगीमे देखना जाइत अछि।
चाहे जे हो एतबा तँ
निर्विवादे जे क्रोधक परिणाम बिरले नीक होइत अछि। सामान्यत: क्रोधमे समस्याक
समाधान हेबाक बजाय नव-नव समस्याक प्रादुर्भाव भऽ जाइत अछि। क्रोधक आवेगमे कएल गेल
गलती केतेको-बेर मरण-पर्यन्त पश्चातापक कारण भऽ जाइत अछि।
अतएव क्रोध सबहक लेल घातक
होइत अछि। ऐसँ अध्यात्मिक प्रगतिमे व्यवधान तँ होइते अछि संगे सांसारिक विकास सेहो
अवरूद्ध भऽ जाइत अछि। अस्तु क्रोध अवश्य त्याज्य थिक।
लेखक-
रबीन्द्र नारायण
मिश्र
दिनांक-
२४.०१.१९८८
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें