मैथिलीमे हमर प्रकाशित पोथी

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रविवार, 7 फ़रवरी 2021

किसान आंदोलन का सच

 

 

किसान आंदोलन का सच

 

आजकल देश एक विचित्र स्थिति से गुजर रहा है । देश के तथाकथित किसान अपने हितों की रक्षा के लिए सड़क पर उतर आए हैं । जहाँ-तहाँ धरान-प्रदर्शन कर रहे हैं । सड़कों को जाम कर दिया है । पंजाब,हरियाना और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गाँवों में घूम-घूमकर आंदोलनकारी ग्रामीणों को जगा रहे हैं कि वे चेत जाएं और अगर अबकि चूके तो गए । २६ जनवरी को जब पूरा देश गणतंत्र दिवस मना रहा था,जब इन्डिआ गेटपर आयोजित विशेष समारोह में देश के राष्ट्रपति,प्रधानमंत्री, एवम् अन्य गणमान्य लोग गणतंत्र दिवस का परेड देख रहे थे ,जव राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रतीकों पर राष्ट्रीय ध्वज फहराया जा रहा था तभी कुछ सिरफिरे दिल्ली के कानून व्यवस्था को तहस-नहस कर लालकिला पर राष्ट्रीय ध्वज के बगल में अन्य ध्वजों को फहरा रहे थे। ऐसा करने के लिए उनलोगों ने जो सुनियोजित षड़यंत्र किया,जिस तरह संपूर्ण दिल्ली में हजारों ट्रैक्टर के साथ विप्लवकारी दृश्य उपस्थित किया वह समस्त देशवासियों ने स्वयं देखा । उपद्रकारियों में अधिकांश लोग लाठी,डंडा,तलवार और अन्य हथियारों से लैस थे । उनके गैर कानूनी हरकतों पर जब भी पुलिस के लोगों ने विराम लगाने की चेष्टा की तो उन्हें तलवार,और अन्य घातक हथियारों का सामना करना पड़ा । उस दिन सैकड़ों पुलिसकर्मी अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए बुरी तरह जख्मी हो गए । कुछ को तो आइसीयू में भर्ती करना पड़ा । २६ जनवरी जैसे शुभ दिन में देखते ही देखते सारे दिल्ली में भयावह दृश्य उपस्थित कर दिया गया । किसान आंदोलनकारियों के नेता जिन्होंने पुलिस के सामने शांतिपूर्ण प्रदर्शन का लिखित आश्वासन दिया था एकाएक कहीं गायब हो गए । आखिर, यह सब क्यों और किसके इशारे पर किया गया?

इस घटना के बाद अब कुछ यह कहते सुने जा रह हैं कि अगर आंदोलनकारियों ने कानून अपने हाथ में ले लिया  तो पुलिस क्या करती रही ?क्यों नहीं उनलोगों ने आंदोलनकारियों के खिलाफ समुचित वलप्रयोग कर उन्हें ऐसा करने से रोक दिया?

इस बात में कोई  सक नहीं है कि दिल्ली में २६ जनवरी २०२१ के दिन आंदोलनकारियों ने ऐसा माहौल बना दिया था कि पुलिस कठोर कदम उठा सकती थी । पर उन्होंने बड़े धैर्य और संयम से काम लिया । जहाँ बहुत जरूरी हुा वहीं आँसू गैस और डंडे से काम चलाया गया जबकि सैकड़ों पुलिस कर्मी को आंदोलनकारियों ने घायल कर दिया । संभवतः वे लोग चाहते थे कि सरकारी गोली चलबा दे ताकि उन्हें सरकार के खिलाफ कुछ और कहने-करने का मौका मिल जाए । यह कम आश्चर्य की बात नहीं हे कि दिल्ली पुलिस ने अभूतपूर्व संयम का परिचय देते हुए और अपनी जान का बाजी लगाकर ऐसा कुछ नहीं होने दिया । लेकिन आंदोलनकारियों ने इसका भरपूर नाजायाज फैदा उठाया और भारी तादाद में हिंसा पर उतारू भीड़ लाल किले को अपने कब्जे में ले लिया । इतना ही नहीं,कुछ लोग तो वहाँ तलबार भांजते रहे । तरह-तरह के उत्तेजक भाषणबाजी करते रहे। इसी बीच राष्ट्रीय झंडे के पास में एक और झंडा लगा दिया गया । ऐसा करने के बाद कई लोगों ने विजयी मुद्रा बनाते हुए राष्ट्रीय स्वाभिमान को चुनौती देते हुए सभी राष्ट्रप्रेमी लोगों की भावना का जो अनादर किया सायद इसका उनको तनिक भी परबाह नहीं था । लेकिन जो नुकसान होना था सो तो हो चुका । जिस लालकिले पर तिरंगे झंडा को फहराते देखने का स्वप्न पाले हुए पता नहीं कितने लोग शहीद हो गए,उसी स्थान पर ऐसा राष्ट्रविरोधी दृश्य उपस्थित करने का आखिर मकसद क्या था?

यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि जब किसान कानून के मामले में उच्चतम न्यायालय सुनाबई कर ही रही है और इस कानून पर फिलहाल रोक भी लगा दिया गया है,इतना ही नहीं उच्चतम न्यायालय ने एक समिति गठित कर इस मामले पर प्रतिवेदन देने को कहा है तो भी आंदोलन क्यों नहीं रोका जा रहा है? प्रधान मंत्री कई बार कह चुके हैं कि इस कानून से किसानों के हितों पर कोई क्षति नहीं होगा,किसी किसान की जमीन नहीं जाएगी,तब भी क्यों हंगामा किया जा रहा है? उतना ही नहीं,अब तो सरकार खुद डेढ़साल तक इस कानून पर रोक लगा देने के लिए तैयार है,तब भी किसानों के साथ सरकार की बातचीत क्यों असफल हो गई ? आखिर किसान नेता चाहते क्या हैं? क्या संसद के द्वारा बहुमत से पास किसी कानून को कुछ लोग वलप्रयोग करते हुए रोकने पर सरकार को मजबूर कर देंगे तो देश में जनतंत्र कितने दिन चल पाएगा? कोई कानून संवैधानिक है या नहीं इसके लिए भारत में स्वतंत्र न्यायपालिका का प्रवधान भारत के संविधान ने कर रखा है। ऐसा क्या हुआ है कि आंदोलनकारियों को संसद,सरकार,प्रधानमंत्री ,उच्चतम न्यायालय सहित अन्य संवैधानिक संस्थाओं में से किसी पर भी विश्वास नहीं हो रहा है । इन सब बातों पर विचार करने से यह सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि किसान आंदोलनकारियों की भेष में कहीं ये लोग कुछ क्षद्म एजेंडा तो नहीं चला रहे हैं?

यह समझ से परे है कि आंदोलन शुरु होते ही विदेशों से इसके समर्थनमें आवाज उठने लगी। सरकार लगातार  किसान आंदोलनकारियों से समझौता करने का प्रयास करती रही । इस प्रयास में वे जितने ही आगे बढ़े किसान नेता उतने ही कठोर रुख बनाते रहे। जरा सोचिए कि संसद द्वारा विधिपूर्वक पास कानून को कुछ मुठ्ठी भर लोग चुनौती दें और कानून निरस्त हो जाए तो देश में कौन सा लोकतंत्र चलेगा? सरकार से यह अपेक्षा करना कि कानून पूर्णतः रद्द कर दिया जाए तभी वे लोग आंदोलन बंद करेंगे,कहीं से भी न्यायसंगत नहीं लगता है ।

 दिल्ली में छब्बीस जनवरी को ट्रैक्टर रैली के नाम पर जो हिंसा किए गए,जिस तरह भयावह दृष्य उतपन्न कर दिया गया,लाल किला को अपमानित कर राष्ट्रीय स्वाभिमान पर चोट किया गया,उस से सारा देश क्षुव्ध है । एकदिन तो ऐसा लग रहा था कि अब यह आंदोलन यहीं समाप्त हो जाएगा । कुछ लोग अपना-अपना सामान हटाकर वापस जाने भी लगे थे । लेकिन फिर अचानक क्या हुआ कि वे लोग अपने पुराने स्थान पर वापस लौट आए । अब फिर वही हालात बना दिए गए।

यह कहने की जरूरत नहीं है कि दिल्ली के आस-पास ही यह आंदोलन सिमटा हुआ है । पंजाब पश्चिम उत्तरप्रदेश और हरियाना के कुछ हिस्सोंके कुछ लोग ही इस से जुड़े हुए लगते हैं । हला कि इस बात की लगातार कोशिश की जा रही हे कि पंजाब की तरह अन्य राज्यों के लोग भी इस से जुड़े पर वैसा अबतक हुआ नहीं है । पंजाब में जरूर इसका व्यापक प्रभाव दिख रहा है । इसका एक प्रमुख कारण वहाँ  होने बाले विधान सभा का आगामी चुनाव और उस से जुड़ा हुआ राजनीतिक स्वार्थ है । अकाकी दल,कांग्रेस, और आम आदमी पार्टी सभी इस मौके का लाभ उठाना चाहते है । जनता इस कानून के बारे में कतनी जानती है ,यह कौन जानना चाहता है? लगता है कि अधिकांश किसान को भ्रमित किया जा रहा है । उनके सीधेपन का राजनीतिक दुरुपयोग हो रहा है। अगर कानून में कमी है तो उसके सुधार का संवैधानिक उपचार होना चाहिए था । इसके लिए कुछ लोग उच्चतम न्यायालय का रुख कर भी चुके हैं ।  उच्चतम न्यायालय इस मामले में उचित कारबाई कर भी रही है । लेकिन आंदोलनकारी तो उच्चतम न्यायालय में भी विश्वास करने के लिए तैयार नहीं दीख रहे हैं । लेकिन क्यों?

अब यह सभी जानते हैं कि किसान के नाम पर चलाए जा रहे आंदोलनक मूल उद्दयेश्य मोदीजी को राजनीतिक रूप से कमजोर करना है। वे इसके लिए अनंत काल तक आंदोलन चलाने के लिए तैयार दीखते हैं । फिर यह कैसे मान लिया जाए कि तीनों कृषि संवंधित कानून अगर समाप्त भी कर दिया जाए तो आंदोलनकारी चुप बैठ जाएंगे । वे तो द्विगुणित शक्ति से फिर कुछ मौका ढ़ूंढ़कर नया बखेरा तबतक करते रहेंगे जबतक सन् २०२४ में देश का अगला आम चुनाव नहीं हो जाता है। इस बीच होने बाले राज्यों के विधानसभाओं के चुनाव भी इस आंदोलन को चलाए रखने का एक मकसद है । बंगाल,पंजाब,उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों के विधानसभाओं का चुनाव में वे बीजेपी को पराजित होते देखना चाहते हैं । यह सब किसलिए और कौन कर रहा है यह कहने की आवश्यकता नहीं है । ऐसे लोगों को न तो देश हित की चिंता है न ही विदेश में हो रहे भारत की छवि को नुकसान का । जाहिर है कि इसका फैदा भारत विरोधी शक्तियाँ जैसे चीन,पाकिस्तान उठाएंगी और क्यों न उठाएं? जब अपने लोग ही दुश्मनहो जाएं तो देश कबतक बचेगा? जरुरी है कि देशवासी इन तमाम षड़यंत्रों से सावधान हो जाएं और एसे तमाम देश विरोधी ताकतों को माकूल जबाब दें जिस से वे दुबारा ऐसा कुछ करने से पहले सौ बार सोचें ।

 

रबीन्द्र नारायण मिश्र

mishrarn@gmail.com

7.2.2021

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