मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

लहसन उपन्याससँ उठैत जीवन संघर्षक स्वर




लहसन उपन्याससँ उठैत जीवन संघर्षक स्वर

:: रबीन्द्र नारायण मिश्र

समाजक निर्माण सभगोटे मिलि कए करैत छी। सभक सुख-सुबिधाक हेतु प्रकृति अपन समस्त संपदाक निर्माण केने अछि। जे वस्तु जतेक महत्वपूर्ण अछि से ततेक प्रचुर मात्रामे आ सर्वसुलभ करबाक व्यवस्था प्रकृति द्वारा भेल अछि। जेना कि वायु, जल, सूर्यक प्रकाश निरंतर उपलब्ध अछि। तहिना पृथ्वी सेहो सुलभ रहल होएत। मुदा मनुक्खक स्वार्थी प्रवृति कही, वा जे कही, लोक समस्त शक्तिसँ सर्वसुलभ वस्तुसभकेँ दुर्लभ करबाक कोनहु प्रयास नहि छोड़लक।

 ई बात सभ जनैत अछि जे एहि पृथ्वीक एक इंच केओ अपना संगे नहि लए जा सकत, खाली हाथ आएल आ खाली हाथ चलि जाएत तथापि जेना-तेना अधिक-सँ-अधिक भूभागपर अपन कब्जा करएमे दिन-राति लागल रहैत अछि। परिणाम की भेल? पृथ्वी खंड-खंड भए गेलथि। हुनकर आँङन लहु-लहान भेल अछि। केओ सए बिघा जमीन कब्जा कए लेने अछि तँ केओ हजार। कतेको एहनो लोक छथि जिनका घरारिओ नहि छनि, ककरो अनकर जमीनपर बास केने छथि। जखन ओ चाहए भगा दिअए। मनुक्ख एहि प्रवृत्तिक कारण पृथ्वीपर भूमिहीन मजदूरक हुजुम बनि गेल। एहन लोकक केओ माए-बाप नहि। दिनमे खाउ आ साँझ हेतु प्रयासमे लागि जाउ। बात ततबे तक रहैत तखन तँ चलू...। मुदा मनुक्खक राक्षसी प्रवृति आओर आगाँ बढ़ल। भरिदिन काज केलाक अछैतो मजदूर बोनि माङलापर मारल-पीटल गेल। तेँ ने ओ घसल अठन्नी बाजि उठल- हम कतए जाउ ,अवलंब पाउ...।[1]

हालत तँ आब ई अछि जे पानि,हवा, रौद किछु सर्वसुलभ नहि रहल। जकरा टाका अछि तकरा लेल सभकिछु सुलभ, नहि तँ बाट तकैत रहू। एकहि समयमे एकहि ठाम रौदी आ दाही दुनू एहि समाजमे विद्यमान देखल जा सकैत अछि।

जाहिर बात अछि जे अभावग्रस्त लोक रोजी-रोटीक फिराकमे जतए-ततए बौआइति रहैत अछि। तेहने एकटा व्यक्ति अछि श्री जगदीश प्रसाद मण्डलजीक लिखित उपन्यास लहसनक नायक- मेवालाल। मेवालाल अपन घरबालीक गहना बेचि कलकत्ता काज करए बिदा होइत अछि। रस्तामे ओकरा किछु आओर सहयात्रीसभ भेटि जाइत छथि। रविनाथक संग भए गेलासँ हुनकर यात्रा आसान भए जाइत छनि। जेना-तेना कलकत्ता पहुँचि जाइत छथि। ओहिठाम पहिनेसँ रहैत कैकटा मजदूरसभ हुनका मदति करैत छथि। कलकत्तामे अपना सन-सन कतेको मजदूरसभसँ मेवालालक परिचय होइत छनि। ओएहसभ हुनका हथरिक्सा चलेबाक काज पकड़बामे सहयोग करैत छथि। कठोर परिश्रमसँ ओ अपन जीवन-यात्राकेँ आगू बढ़बैत छथि। अपनो जीबैत छथि आ गाममे रहि रहल अपन परिवारोकेँ जिआबैत छथि। किछुसाल एहिना बीति जाइत अछि। एकदिन संयोगसँ हुनका एकटा मीलमे नौकरी भेटि जाइत छनि। रहबाक हेतु घर सेहो ओही कंपनी द्वारा देल जाइत छनि। दरमाहा सेहो नीक भए जाइत छनि। तखन गामसँ अपन पत्नी राधाकेँ लए अनैत छथि। पत्नीक आबि गेलासँ समय नीकसँ बीतए लगैत छनि। एहीक्रममे ओही मीलमे काज केनिहारक हिनकर पड़ोसी सुनीलपालसँ हुनका दोस्ती भए जाइत छनि। दुनू परिवारमे अबरजात बढ़ैत अछि। मेवालालक पत्नी राधा आ सुनीलपालक पत्नी अंतिकापालक बीच सेहो निकटता बढ़िते रहैत अछि। संयोग एहन होइत अछि जे सुनीलपालक पत्नी अंतिकापालक दुर्घटनामे मृत्यु भए जाइत अछि। सुनीलपाल घरमे असगर भए जाइत छथि। एहन समयमे हुनकर ध्यान मेवालालक पत्नी राधापर पड़ैत छनि। उपन्यासकारक शब्दमे-

तेकर बाद राधापर बंशी पथलैन, जे सुतैर गेलैन। सुतैर ई गेलैन जे राधाकेँ अपन पत्नी बना अपना घरमे रखि लेलैन। ओना, बुढ़ाड़ीमे सिनुरदान करब नीक नइ बुझि नइ केलैन। तँए राधा सिनुर नइ करै छैथ सेहो नहियेँ अछि। दुनूक सम्बन्ध सभकेँ बुझल, मुदा तैयो सुनीलपाल राधाकेँ छह मास चोरा कऽ रखलैन।[2]

पत्नीकेँ तकबाक क्रममे मेवालाल सुनीलपालक ओहिठाम सेहो गेलाह। यद्यपि राधा सुनीलपालक घरमे दोसर कोठरीमे बंद रहथि मुदा ओ सामने नहि अएलीह। सुनीलपाल चाह-पान पिआ कए मेवालाकेँ बिदा करबामे सफल रहलाह। तथापि मेवालालक मोनमे कतहु-ने-कतहु संशय रहबे करनि। हुनकर संशय ओहिदिन सत्यमे बदलि गेल जखन मेवालाल कलकत्ताक बजारमे राधाकेँ सुनीलपालक संगे घुमैत स्वयं देखि लेलनि। परिणाम सोचल जा सकैत अछि। मेवालाल एकर प्रतिकारक हेतु न्यायालयक शरण लैत छथि। न्यायालयमे हुनकर विजय होइत छनि। राधा वापस मेवाला लग अबैत छथि। तकरबाद मेवालाल सहर छोड़ि देबाक निर्णय करैत छथि। राधासंगे गाम आबि कए भोजभात करैत छथि। एकबेर फेर ओ गौंवा भए जाइत छथि।

मनुक्खकेँ जखन पेट जरैत छैक तँ होइत छैक जे कोनो उपायसँ पेट भरए। जखन तकर जोगार भए जाइत छैक तकरबाद आओर-आओर आवश्यकतासभ फुराइत छैक। कहल जाइत अछि जे मन हर्षित तँ गाबी गीत। मेवालाक संगे सेहो सएह भेलनि।

ओना, गाममे चारि कोठरीक पक्का मकान सेहो मेवालाल बना नेने छला, मुदा पत्नीकेँ संग रखने मकानमे ताला लगबए पड़लैन। सालमे एकबेर दुनू परानी गाम अबै छला आ मास दिन तक रहै छला। तही बीच बेटियो-नातिकेँ अपना ऐठाम लऽ अबै छला आ कलकत्ता जाइसँ दू-तीन दिन पहिने, सासुर पठा दइ छेलखिन। माने बेटी सासुर चलि जाइ छेलैन। ओना, अखनो धरि दुनू परानीक मनमे गामक प्रति सिनेह छैन्हे जइसँ ने कलकत्तामे आन नोकरिहारा जकाँ घरे बनौलैन आ ने रहैक विचारे केलैन। नीक दरमाहा रहने मेवालाल गाममे दू बीघा खेतो अरजलैन।[3]

महानगरसँ गामधरि परिवर्तन भेल अछि। देशमे लोकतंत्रक स्थापनाक बाद संविधानमे देशक सभ नागरिककेँ समानताक अधिकारक संगहि आओर कैकटा मौलिक अधिकार प्राप्त अछि। मुदा एखनो ढाकीक-ढाकी लोकसभ गाम-घर छोड़ि जहाँ-तहाँ वौआ रहल अछि। अखनो महानगरसभक गगनचुंबी महलसभकेँ लज्जित करैत हजारो लोक सड़कक कातमे सुतल रहैत अछि आ कैकबेर निसाँमे मातल वाहन चालकक द्वारा पीच देल जाइत अछि। अखनो महानगरसभमे एहन लोकसभक हुजुम अछि जे भोर खाइत अछि आ साँझक हेतु व्योंतमे लागल रहैत अछि। महलसभमे रहनिहार विशिष्ट वर्गक लोककेँ एहन लोकक स्थिति-परिस्थितिक सुधि लेबाक कोन काज? मुदा उपन्यासकार श्री जगदीश प्रसाद मण्डल फाँढ़ बान्हि कए आगू अबैत छथि आ लहसने टामे नहि अपन कतेको रचनासभमे समाजक एहन उपेक्षित वर्गकेँ महत्व दैत छथिन। ई मामूली बात नहि अछि। कारण बलगरहासभक संगे तँ अनेरे लोकसभ ठाढ़ अछि आ तरह-तरहक फएदा उठा रहल अछि। जकर केओ नहि अछि,जे एक हिसाबे बौक अछि, तकर कण्ठमे स्वर देबाक काज करी तखन ने। से काज मण्डलजी केलाह अछि। ताहि दृष्टिसँ जँ अपने लहसन उपन्यास पर दृष्टिपात करब तँ लागत जे ई कतेक भारी काज केलाह अछि।

उपन्यासकार श्री जगदीश प्रसाद मण्डल साहित्यिक क्षेत्रमे परिचयक मोहताज नहि छथि। मैथिली साहित्यक विभिन्न विधामे ओ अपन रचनासभक पथार लगा देने छथि। करीब एक सए किताब मण्डलजीक हाससँ लिखल प्रकाशित भए चुकल अछि। आ अखन ओ हाथ थोड़े बारि देलनि अछि, लिखिए रहल छथि।

लहसनक नायक मेवालाल अपन कलकत्ता-प्रवासमे बचनू, भूषण, दुखी आ मखनलाल उर्फ बौनभाइ सन-सन जन-बनिहारसभक सम्पर्कमे अबैत छथि आ देखैत छथि जे ओ सभ केना सालक-साल कलकत्ता सन महानगरमे संघर्ष कए अपन हालतमे सुधार केलनि। गाममे जमीन-जथा बनओलनि। पक्का घर बनओलनि। हुनकालोकनिक कलकत्तामे एकटा अपन पहिचान छनि। अपन सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश छनि। एहने परिवेशक वर्णन करैत उपन्यासकार लिखैत छथि-

रौतुका खेनाइसँ पहिने आने दिन जकाँ धरमशल्लामे ढोलको-झालि बजए लगल आ ताशक संग गाम-घरसँ लऽ कऽ देश-दुनियाँक गप-सप्प सेहो चलए लगल। एक घर  आ एकरंगाह जिनगी  रहितो अनेको समाजमे विभाजित अछिए। कियो ताशक जुआमे अपन कमेलहो गमा रहल अछि तँ कियो मेहनतक कमाइक संग जुओसँ कमा रहल अछि। तही बीच किछु गोरे एहनो तँ छथिये जे साज-बाजक संग भगवत-भजन सेहो कइये रहला अछि। दुनियाँमे दिन-दिनक घटना सेहो घटिये रहल अछि। तहूमे छोट घटनासँ लऽ कऽ पैघ धरि घटिते अछि। रंग-रंग देखनिहारो-सुननिहार अछिए। लोक अपना मुँहमे ताला थोड़े लगा लेत आकि काने केना मुइन लेत। सेहो तँ चलिते रहत। यएह ने भेल दुनियाँक तमाशा जइमे सभ केनिहारो छी आ देखनिहारो।[4]

लहसनक नायक मेवालाल ग्रामीण परिवेशमे रहनिहार एकटा सरल व्यक्ति छथि। ओ कलकत्तासन महानगरक छल-प्रपंचसँ भरल जिनगीसँ अनभिज्ञ रहथि। असलमे महानगरोमे दू तरहक जीवन एकहि संगे चलैत रहैत अछि। एकदिस सुसज्जित भवनसभमे रहनिहार संपन्न लोकसभ छथि तँ दोसर दिस मेवालाल सन मेहनतकश लोकसभ जे भोर खाइ छथि आ साँझक भोजन व्योंतमे भरि दिन यत्र-तत्र संघर्षरत रहैत छथि। साँझमे कतए जाथि, राति कतए बिताबथि तकरो कोनो ठेकान नहि। जाबे मेवालाल अपनेसन लोकसभक बीचमे रहैत छथि ताबे हुनका सामाजिक रूपसँ कोनो परेसानी नहि होइत छनि। मुदा जखने हुनका नीक नौकरी भेटि जाइत छनि, हुनकर सभकिछु बदलए लगैत अछि। ओ कंपनीक फ्लैटमे रहए लगैत छथि। ओहिठाम सुनीलपालसन सहरिआ लोकसँ हुनका दोस्ती होइत अछि। शुरुमे तँ हुनका ई दोस्ती बहुत नीक लगैत अछि। मुदा सुनीलपाल छल सातिर लोक। ओ मेवालालक पत्नी राधाकेँ पटा लैत अछि,ततबे नहि राधाकेँ अपनासंगे राखिओ लैत अछि आ मेवालाकेँ फुसला दैत अछि जेना ओ किछु जनिते नहि होथि। मेवालाक आँखि तखन खुजैत छनि जखन ओ राधाक संगे सुनीलपालकेँ कलकत्ताक बजारमे टहलैत देखि लैत छथि। तकरबाद ओ राधाकेँ फेरसँ प्राप्त करबाक हेतु न्यायालयक शरण लैत छथि। न्यायालय मेवालाक पक्षमे फैसला कए दैत छथि आ राधा फेरसँ मेवालाल लग आबि जाइत छथि। एहिठाम उपन्यासकार कानूनक व्यवस्थाकेँ मेवालालक पक्षमे करैत काल कानूनक प्रतिकूल जाइत देखाइत छथि। लगैत अछि जेना न्यायालय सेहो स्त्रीकेँ पुरुषक संपत्ति मानि लेलक, जे सही नहि भेल। जखन राधा स्वेच्छासँ सुनीलपालक संगे रहैत छलीह आ ओतए प्रसन्नो छलीह तखन मेवालाल राधाकेँ अपना संगे रहबाक हेतु बिवश नहि कए सकैत छलाह। मेवालाल राधासँ तलाक लए सकैत छलाह। मुदा एहि घनचक्करमे नहि पड़ि उपन्यासकार सोझ समाधान केलथि।

 ई उपन्यास हुनका लोकनिक हेतु एकटा मार्गदर्शकक काज कए सकैत अछि जे सहर गेलाक बाद आधुनिकताक प्रवाहमे अपनासन लोककेँ छोड़ि विशिष्ट बनबाक फिराकमे पैघ लोकसभसँ सटैत छथि आ ताहि क्रममे सभ किछु गमा लैत छथि। मिथिलाक अधिकांश लोक गुजर करबाक हेतु दिल्ली,पंजाब,कलकत्ता आ आन-आन सहरसभमे पसरि गेल छथि। कतेको गोटे तँ अरब चलि गेल छथि। किएक? तकर मूल कारण थिक अपना ओहिठाम रोजगारक अभाव।

जे किछु, मुदा एतबा तँ तय अछि जे एहि उपन्यासकेँ पढ़लासँ पाठक थोड़बे कालमे समाजक निम्नतम पौदानपर ठाढ़ लोकक जिनगीक बारेमे बहुत किछु बुझि सकैत छथि। किछु एहन करबाक प्रेरणा प्राप्त कए सकैत छथि जाहिसँ मेवालाल सन-सन गरीबलोकसभकेँ गाम छोड़ि कलकत्ता सन महानगर पलायन नहि करए पड़नि। एहिसँ प्रेरणा लए समाजक समृद्ध लोकनि किछु करथि जाहिसँ गाम-घरसँ पलायन बन्द होअए आ गाम एकबेर फेर पल्लवित-पुष्पित भए जाए।



लेखक-रबीन्द्र नारायण मिश्र

Email:mishrarn@gmail.com















[1] घसल अठन्नी, काशीकान्त मिश्र मधुपपृष्ठ संख्या- ....
[2] लहसन, जगदीश प्रसाद मण्डल, पृष्ठ संख्या- 95
[3] तत्रैव,                              पृष्ठ संख्या- 87-88
[4] तत्रैव,                              पृष्ठ संख्या- 78

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