मैथिलीमे हमर प्रकाशित पोथी

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शनिवार, 2 दिसंबर 2017

बिधवा विआह




 


बिधवा विआह


समाजक मान्यता, विधि-विधान एवम् लोक व्यवहार समय साक्षेप अछि। जे बात-विचार पचास सय साल पहिने अनिवार्य चलैत छल से आइ-काल्हि जँ लोक करए तऽ हस्यास्पद भए जाएत। पहिने बाल विआह आम बात छल। बेटीकेँ जनमिते जँ माए-बापकेँ कथुक चिन्ता होइक तऽ ओकर विआहक। कहुना कऽ विआह भऽ जाइक आ माए-बाप गंगा नहा लेथि। सोचल जा सकैत अछि जे समाजमे बेटीक स्थिति कतेक दयनीय छल..!

ई बात सभ जनैत छथि जे स्त्रीक बिना पुरुष कतएसँ आएत। जे आइ ककरो बेटी छैक सैह काल्हि ककरो स्त्री, ककरो  माए बनतै। तथपि लोकमे अखनहुँ बेटाक प्रति मोह कम नहि भए रहल अछि। पहिने कतेको गोटा बेटाक चक्करमे आठ-नौ सन्तान कए लैत छलाह। लिंग आधारित एहि भेद-भावकेँ कम करबाक किंवा जड़िसँ दुरुस्त करबाक निरन्तर प्रयास होइत रहल।

एक समय छल जखन पतिकेँ मरलाक बाद ओकर पत्नीकेँ ओकरे संगे जरा देल जाइत छल किंवा वो स्वयं जरि जाइत छल। समाज ओकरा सतीक रूपमे महिमा मण्डित करैत छल। ओकर चितापर सती मन्दिर बना देल जाइत छल। सोचल जा सकैत अछि जे वो कतेक क्रूड़ प्रथा छल। एकटा स्वस्थ जीबन्त व्यक्तिकेँ जरा कऽ एहि लेल मारि देल जाइत छल वा वो स्वयं मरि जाइत छल जे ओकर पतिक देहावसान भए गेल, जाहि लेल वो कोनो प्रकारसँ दोषी नहि छल। मरनाइ, जिनाइ ककरो हाथमे नहि छैक। ई एकटा संयोग होइत अछि मुदा तकर एतेक दुखद् परिणाम होइत छल से सोचियो कऽ रोंआ ठाढ़ भए जाइत अछि।

एकटा विदेशी पर्यटक जखन अपन देश घुमैत रहथि तऽ संयोगसँ श्मशान घाटपर एकटा मुर्दाकेँ लऽ जाइत देखलथि। मुर्दा संगे ओकर पत्नी चिकरैत-भोकरैत श्मशान धरि संगे गेल। लोक सभ तमासा देखैत रहल आर वो पतिक लहासक संगे जारनिसँ लादि देल गेल। जोर-जोरसँ ढोल बजा-बजा कीर्तन करए लागल जाहिमे ओहि जीवित महिलाक करूण क्रंदन दबि कऽ गुम रहि गेलैक आ थोड़बेकालमे ओहो पतिक लहासक संगे छाउर भए गेल। (ई सैंकड़ो साल पूर्वक थिक एवम् एकर वर्णन Beyond the seas–माइकल एच. फीसर द्वारा सम्पादित–पुस्तकमे अछि) एहि तरहक घटना ओहि समयमे आम बात छल। स्त्रीगण सभ अपन नियति बुझि एकरा स्वीकार करैत छलीह। प्रसिद्ध समाज सुधारक राजाराम मोहन रायक एहिपर ध्यान गेल आ वो ब्रिटिश सरकारसँ गोहार कए एहि सामाजिक कुरुतिकेँ बन्द करौलाह।

समाजमे विधवाक स्थिति बेटीक स्थितिसँ जुड़ल अछि। जँ बेटी पढ़तै, लिखतै, बेटा जकाँ ओकरो अवसर भेटतै तऽ ओहो ककरोसँ पाछा नहि रहत। आइ-काल्हि एहिमे किछु परिवर्तन भेल अछि। लोक बेटीकेँ स्कूल-कालेज पठा रहल अछि। डाक्टर, इन्जिनीयर, अफसर सभ किछु बेटीओ बनि रहल अछि। कानूनमे परिबर्तन भेल अछि। पैत्रिक सम्पत्तिमे बेटा ओ बेटीक हक बरोबरि भए गेल अछि। घरेलू हिंसा कानूनक तहक कोनो महिलाकेँ शारीरिक, मानसिक यातना नहि देल जा सकैत अछि। दहेज लेब देब गैर कानूनी भए गेल अछि। प्रश्न ई उठैत अछि जे एतेक रास कानूनसँ लैस भारतीय महिला की सभ तरहेँ अधिकार सम्पन्न, सुरक्षित ओ प्रतिष्ठिापूर्ण जीवन-यापन करबाक स्थितिमे आबि गेल छथि? ई सोचिये कऽ कलम ठाढ़ भए जाइत अछि।

समाजमे बेटीक स्थितिमे सुधार मूलत: शहरी क्षेत्र धरि सीमित अछि। गाम-घरक हाल मोटा-मोटी ओहने अछि। अपना ओहिठाम शिक्षाक स्तर तेहन गड़बड़ायल अछि जे जँ क्यो स्कूल-कालेज जाइतो छथि, किंवा डिग्रीओ हासिल कऽ लैत छथि तैयो हुनका कोनो रोजगार भेटि सकत से संदेहास्पद। जँ आर्थिक निर्भरता बनल रहत, सम्पत्तिक अधिकार मात्र कानूनक  किताबे तक सीमित रहि गेल तऽ बेटी कोना बढ़त?

जाहि समाजमे बेटीकेँ शिक्षाक समान अवसर भेटल, पैत्रिक सम्पत्तिमे अधिकार भेटल ओहिठामक महिला निश्चित रूपसँ सभ तरहें आगा भऽ गेलीह। एहिमे केरल राज्यक चर्चा कएल जा सकैत अछि। पुरना समयमे (आ किछु हद तक अखनहुँ) विधवा होइते जेना ओकरापर विपत्तिक पहाड़ टुटि जाइत छल। तत्कालीन समाजक समस्त मान्यता, बिध, व्यवहार ओकरा अपमानिते नहि करैत छल, अपितु अशुभ बुझैत छल। केस कटा लिअ, नीक- नीकुत खाउ नहि, साधारण कपड़ा पहिरू, उपास-पर-उपास करैत रहू। तेतबे नहि, कोनो शुभकाजमे आगा नहि रहू। आखिर ओकर की दोष रहैक जकर दण्ड ओकरा समाज दैत छलैक?  

लगैत अछि, समाजक पुरोधा सभ असुरक्षा भावसँ ततेक ग्रस्त रहथि जे हुनका आगा-पाछा किछु आओर सोचेबे नहि करनि। कतेको ठाम तऽ नवलिग बिधवा भए जाइत छलि आ आजीवन धोर कष्ट एवम् विपत्तिमे जीवन-यापन करैत छलीह। गरीबी, सामाजिक प्रताड़नासँ तंग भए कतेको बिधवा गाम-घर छोड़ि वृन्दावन किंवा आन-आन तीर्थ शरण धए लैत छलीह। अखनो हजारोक संख्यामे वृन्दावनमे बिधवा सभ पड़ल छथि। भारतक उच्चतम न्यायालय हुनका सभक स्थितिपर विचार केने छल। सुलभ इन्टरनेशनल द्वारा हुनका सभ लेल किछु कल्याणकारी योजना सभ सुनबामे आएल छल। मुदा ई सभ ऊँटक मुँहमे जीरक फोरन थिक। जरूरी तऽ ई अछि जे समस्याक जड़िमे जाए ओकरा समूल नष्ट कएल जाए। आखिर पुरुष बिधुर भेलापर विआह करैत छथि की नहि? तहिना महिलोकेँ ई अधिकार समाज स्वीकृत हेबाक चाही।

यद्यपि यत्र, तत्र सर्वत्र महिला सशक्तीकरणक चर्च होइत रहैत अछि, तथापि व्यवहारिकतामे संकट अछिए। जँ दुर्भाग्यवश क्यो बिधवा भए जाइत छथि तऽ अखनो हुनका नाना प्रकारक यातना, सामाजिक प्रताड़ना भोगए पड़ैछ। अस्तु, ई विचारणीय थिक जे बिधवा लोकनिक स्थितिमे गुणात्मक सुधार हेतु हुनकर पुनर्विवाहक व्यवस्था हो। एहिमे सभसँ बाधक विआहसँ जुड़ल खर्चा एवम् जातीय स्वाभिमान अछि। मुदा ई विचारणीय प्रश्न थिक जे समाजक कोनो व्यवस्था जँ एक निर्दोष जीवनकेँ कष्टमय केने रहैत अछि तऽ ओकरामे संशोधन किएक नहि हेबाक चाही?

ओना, कतेको जातिमे बिधवा विआह पहिनहिसँ चलनमे अछि। कतेको महिला एहिसँ एकटा नूतन जीवन जीबाक अवसर प्राप्त करैत छथि। मुदा किछु जाति विशेषमे अखनो एकरा पारिवारिक प्रतिष्ठासँ जोड़ि कए देखल जाइत अछि। आखिर, ओ प्रतिष्ठाक जे गति होइत अछि, ताहिपर चर्चाक आवश्यकता नहि अछि। एहन बिधवा जकरा सन्तानो नहि छैक, एकरा व्यर्थ निष्ठाक नामपर लगातार कष्ट सहैत रहए, जीवनक समस्त सुख, सम्पदासँ वंचित रहए से कहाँ तक जायज अछि?

कतेको समाजमे ई व्यवस्था अछि जे बिधवाकेँ ओही परिवारक अविवाहित भाए किंवा समव्यस्क सम्बन्धीसँ विआह कए देल जाइत अछि। निश्चित रूपसँ वो सभ बेसी व्यवहारिक एवम् वुधिआर लोक छथि। मुदा जँ सेहो सम्भव नहि होइक तखन तऽ परिवारक वयस्क सदस्यकेँ आगा आबि ओहि महिलाक जीवनमे पुन: स्थापित करबामे सहयोग करथि आ सुयोग्य, सही व्यक्तिसँ विआह करबामे सहयोग करथि।

जँ बिधवाकेँ सन्तान छैक तखन पुनर्विवाहसँ दिक्कति भए सकैत छैक मुदा एहनो परिस्थितिमे ओहि बच्चा सभक संगे बिधवाकेँ स्वीकार करब सर्वोत्तम समाधान भए सकैत अछि। हम एकबेर यूरोप गेल रही तऽ हमर सभक वाहन चालक अपन परिवारक चर्चा करैत कहए लगलाह जे हुनकर स्त्रीक ई दोसर विआह छनि। पहिल विआहसँ दूटा सन्तान छनि। हुनकासँ विवादक बाद एकटा सन्तान छनि। एवम् प्रकारेण वो तीनटा सन्तानक पिता छथि आ सभक भरण-पोषण सहर्ष एवम् समान्य रूपसँ करैत छथि। विदेशमे ई आम बात अछि। ओहिठाम विआह विच्छेद जहिना होइत अछि तहिना पुनर्विवाह सेहो भए जाइत अछि। फेर अधिकांश महिला पुरुष ओहि स्थिति हेतु तैयारो एहि मानेमे रहैत छथि जे आर्थिक निर्भरता सामान्यत: नहि रहैत अछि। ईहो बुझय जोगर गप्प अछि जे ओकर सभक समाजक मूल्य अछि जे ओकर सभक समाजक एवम् पारिवारिक संरचना अलग अछि।

अपन भारतीय मूल्यक रक्षा करैत एवम् परिवारक संरचनाकेँ कोनो तरहें बिना दुबर केने विशेष परिस्थितिमे सामाजिक सामंजस्यक व्यबस्था जरूरी अछि जाहिसँ संयोगवश जँ क्यो बिधवा भए जाइत अछि तऽ हुनका तरह- तरहक कष्टसँ बचाऔल जा सकए आ हुनक भावी जीवनकेँ सुखद कएल जा सकए।

ओना अपने देशक कतेको राज्यमे बिधवा विआह आम बात भए गेल अछि। अपनो समाजमे किछु जाति विशेषमे एकरा लोक अखनो ढो रहल अछि जखन कि कतेको जातिमे पहिनहुँसँ ई व्यबस्था रहल अछि। अस्तु ,एहि कुप्रथाक कोनो मजगूत धार्मिक पक्ष नहि लगैत अछि। ई एकटा जाति विशेषक किंवा वर्ग विशेषक अहंसँ पोषित सामाजिक अभिशाप थिक जकर सुधारपर सभक ध्यान जा रहल अछि, मुदा व्यबहारमे अखनो स्वीकार्य नहि अछि। एहन नहि अछि जे बिधवा विआह होइते नहि अछि, गाहे-वगाहे उच्च वर्गीय मैथिलोमे ई भए जाइत अछि मुदा अखनो ई एकटा स्वभाविक, सर्वमान्य चलनक रूप नहि लेने अछि, जाहि कारणें कतेको कम वयसक कन्या जीवनक समस्त सुख, सुबिधासँ वंचित रहि दुखमय जीवन बीतेबाक हेतु विवश छथि।

किछु एहन घटना सभ देखएमे आएल जतए परिस्थितिवश पतिक देहान्त भए गेलाक बाद हुनके परिवारक लोक विआहक व्यबस्था केलाह आ आइ वो एकटा सुखी परिवारिक जीवन जीबि रहल छथि। पूर्व पतिसँ जे सन्तान छलैक ओकरो नीकसँ पालन-पोषण भए रहल अछि। नव विआहमे सेहो सन्तान भेलैक। हमर कहबाक तात्पर्य अछि जे सभ किछुकेँ हठाते धर्म-कर्मसँ जोड़ि कए मनुक्खक जीबन नर्क कऽ देब कतहुँसँ उचित नहि अछि।

गाम-गाममे एहन दृश्य देखएमे अबैत रहल अछि जे अपने लोक बिधवाक शोषण करैत छथि। कतेकठाम तऽ ओकर हत्या तक भऽ गेल। ओकर सम्पत्ति अपने लोक लूटि लेलक वा ठगि लेलक आ जखन ओकरा प्रयोजन भेलैक तऽ सभ कात भऽ गेल। तथाकथित मर्यादाक उल्लंघन जखन आम बात भऽ गेल हो, ताहि मर्यादाकेँ व्यर्थ होइत रहब सर्वथा अनुचित।

पारिवारिक जीवन हेतु, भारतीय मूल्यक रक्षा हेतु, वैवाहिक जीवनक महत्वकेँ कमतर नहि आँकल जाए सकैत अछि। परन्तु ओकर आधार मजगूत बनल रहैक ताहि हेतु सोचमे परिवर्तन जरूरी अछि। पूरा दुनियाँ बदलि रहल अछि। इन्टरनेट, मोबाइल, टेलीवीजन, फेसबुक, ह्वाट्सअप सौंसे दुनियाँकेँ एक आँगन (Global Village) मे परिवर्तित कए देलक अछि। एहि परिवर्तनसँ क्यो बाँचल नहि रहि सकैत अछि। गाम-गाम वएह टेलीवीजन, वएह गीत नाद, वएह सीनेमा चलैत अछि। स्वाभाविक अछि जे गामोक धिया-पुतामे आधुनिकताक मानसिकता उत्पन्न होइक। एकरा एकदमसँ छोड़लो नहि जा सकैत अछि। अस्तु,आधुनिकताक बिहाड़िमे सभटा उड़िया जाए ओहिसँ पूर्वे हमरा लोकनि स्वत: स्वभाविक रूपसँ परिस्थितिजन्य कारणसँ बिधवा भेल महिलाकेँ पुनर्वास हेतु, ओकर सम्मानपूर्ण जीवन-यापन हेतु सोचबाक चाही।

समाज जे गतिशील होइत अछि, जे बदलैत परिवेशसँ सामंजस्य स्थापित करबाक हेतु प्रयत्नशील रहैत अछि, सैह टिकैत अछि। ओकरे विकास होइत अछि। जँ से नहि भेल तऽ अपने बनाओल नियम, कानून वो मर्यादाक बोझसँ स्वत: चरमरा जाइत अछि। जरूरी अछि जे समयक संग तादाम्य स्थापित कए हम सभ नूतन विचारकेँ सहर्ष स्वीकार करी ओ प्रगतिक पथपर आगा बढ़ी।

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