यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः । तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥
रविवार, 12 जनवरी 2020
गुरुवार, 9 जनवरी 2020
दिल्ली विधानसभा का आगामी चुनाव
दिल्ली
विधानसभा का आगामी चुनाव
अब जब कि भारत के
चुनाव आयोग ने दिल्ली विधानसभा के चुनाव का बिगुल बजा दिया है और ८ फरबरी को पूरे दिल्ली में एक साथ चुनाव होना
तय हो गया है तो स्वभाविक प्रश्न उठने लगा है कि दिल्ली का चुनाव इस बार कौन
जीतेगा?
क्या आम आदमी पार्टी फिर सत्ता पर काविज हो पाएगी या बीजेपी एक लंबे
अवधि के बाद दिल्ली में फिर से राज कर पाएगा । पहले एक आम धारणा हुआ करती थी कि
दल्ली पूरे देश के नब्ज को इंगित करता है ,याने जो दिल्ली का
चुनाव जीतने में सफल होगा वही देश पर भी राज करेगा। इसका कारण यह भी था कि दिल्ली
का चुनाव कांग्रेस और बीजेपी में हुआ करता था । बीजेपी का दिल्ली में तब भी एक
निश्चित जनाधार हुआ करता था जब पूरे देश में कांग्रेस पार्टी की तूती बोलती थी ।
कोई तीसरा दल यहाँ थT ही नहीं । पर पिछले छ; सालों से दिल्ली का परिदृश्य पूरी तरह बदल गया है । ऐसा आम आदमी पार्टी के
उदय से हुआ है । सायद कुछ साल पहले तक किसी ने नहीं सोचा होगा कि राजनीतिक गलिआरे
में एकदम अपरिचित श्री अरविंद केजरीवाल,दिल्ली के मुख्यमंत्री बनेंगे,वह भी अपार जनसमर्थन
से । सन् २०१५ के दिल्ली के विधानसभा चुनाव में ७० में से ६७ सीट जीकर उन्होंने एक
कीर्तिमान स्थापित किया । निश्चय ही लोगों ने श्री केजरीवाल में अपार संभावना देखी होगी,बड़ी
उमीदें पाली होंगी और उन्हें लगा होगा कि दिल्ली का भविष्य वहीबदल सकने में सक्षम
होंगे । इतनी बड़ी जीत के पीछे उनके आम आदमी का समर्थक होने का प्रचार का बहुत
योगदान था । दिल्ली में रह रहे गरीब, पीड़ित लोग
यहाँ फैले कुशासन से तंग आकर श्री केजरीवाल में इस सबसे मुक्ति का नायक देखा था ।
सबाल है कि अब जबकि वे दिल्ली पर पाँच साल राज कर चूके हैं और अब अगले पाँच साल के
लिए चुनाव घोषित हो चुका है तो क्या दिल्ली की जनता एकबार फिर उनमें विश्वास
व्यक्त करेगी या उन्हें बदलकर बीजेपी या कांग्रेस की सरकार स्थापित करना चाहेगी?
दिल्ली के वर्तमान
मुख्यमंत्री के राजनीतिमें प्रवेश श्री अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन
के परिपेक्ष्य में हुआ था । सन् २०१४ के आम चुनाव से पूर्व देश में कई राजनीतिक
नेताओं के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे। अन्ना हजारे के नेतृत्वमें श्री अरविंद केजरीवाल सहित कई नामी लोग,सामाजिक
कार्यकर्ता,कलाकार लोकपाल के गठन सहित कई अन्य मांगो के लिए आंदोलन
कर रहे थे । इन्हीं आंदोलनों के दौरान कुछ लोगों का मत हुआ कि एक नया राजनीतिक मंच
वा दल बनाकार चुनाव लड़ना चाहिए जिससे व्यवस्था के भीतर से भ्रष्टाचार पर वार किया
जा सकेगा । लेकिन कुछ लोग जिनमें श्री
अन्ना हजारे स्वयं भी शामिल थे,राजनीति में भाग लेने के
विल्कुल खिलाफ थे । इसी बीच दिल्ली विधानसभा हेतु चुनाव की घोषणा हुई । श्री अरविंद केजरीवाल समेत कुछ अन्य लोग जैसे श्री
प्रशांतभूषण,श्री योगेन्द्र यादव आदि ने एक नया राजनीतिक दल
बनाकर दिल्ली विधानसभा का चुनाव लड़ने का फैसला कर डाला । उस समय कुछ युवकों का
उत्साह देखने योग्य था । कई युवक विदेशों में अच्छ-अच्छे नोकड़ियों को छोड़कर पहले
श्री अन्ना हजारे और बाद में दिल्ली के वर्तमान मुख्यमंत्री के साथ हो गए। दिल्ली
के लोदी गार्डेन सहित कई अन्य महत्वपूर्ण जगहों पर इन युवकों को सितार एवम् अन्य
वाद्ययंत्र बजा-बजाकर आम आदमी पार्टी के पक्ष में समर्थन मांगते देखा जाता था ।
ऐसा लगता था कि दिल्ली में कोई महाक्रांति होनेवाली है । सबकुछ बदल जाना है ।
गरीबों का तो कायाकल्प हो जाएगा । पूर्ण स्वराज की परिकल्पना से लोगों को सम्मोहित
किया जा रहा था । यह भी कहा जा रहा था कि अगर दिल्ली के वर्तमान मुख्यमंत्री सरकार
बना सके तो भ्रष्टाचार तो देखते ही देखते समाप्त हो जाएगा । इस सबका दिल्ली के मतदाताओं
पर व्यापक असर हुआ । सन् २०१३ में कराए गए दिल्ली विधानसभा के चुनाव का परिणाम आया
। दिल्ली के विधानसभा में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था । लेकिन
आम आदमी पार्टी दूसरे नंबर पर आई थी और कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाने में
कामयाब रही थी । सरकार बन तो गई लेकिन ज्यादा दिन चल नहीं सकी । श्री अरविंद केजरीवाल ने श्री नरेंद्र मोदीजी के
खिलाफ वनारस से लोकसभा का चुनाव लड़ने का फैसला किया और दिल्ली के मुख्यमंत्री पद
से त्यागपत्र दे दिया । दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया । २०१४ के लोकसभा
चुनाव में बीजेपी को अकेले लोकसभा में स्पष्ट बहुमत मिला । दिल्ली के वर्तमान
मुख्यमंत्री वनारस से लोकसभा का चुनाव हार गए । इसके बाद उन्होंने फिर आंदोलन का
रस्ता पकड़ा। दिल्ली के छोटे-मोटे समस्यायों से जूझते रहे। इस सबका फैदा उनको छः
महिने बाद दिल्ली में फिर से कराए गए चुनाव में मिला। उनके नेतृत्व में आम आदमी
पार्टी ने सत्तर में से सड़सठ सीटें जीत लिया। भारतीय जनता पार्टी को मात्र तीन
सीट मिले जबकि कांग्रेस का खाता तक नहीं खुल पाया ।
सोचने की बात हे कि
दिल्ली के वर्तमान मुख्यमंत्रीके नेतृत्व में ऐसा क्या दिखा कि दिल्ली के तथाकतित
स्मार्ट मतदाता उनके उपर इस तरह फिदा हो गए कि २०१५ में
कराए गए विधानसभा के चुनाव में विपक्ष का नामोनिशान मिट गया । जरा पाँच साल पीछे जाइए तो इसका अनुमान लग जाएगा कि लोगों को
क्या-क्या सब्जबाग दिखाए गए ।
”
सभी बसों में मार्सल लगाए जाएंगे , सीसीटीभी लगाए जाएंगे ।
पूरे दिल्ली में मुफ्त वाइ-फाइ की सुविधा दी जाएगी। कच्ची कालोनिओं में सभी मौलिक
सुबिधाएं मुहैया कराई जाएंगी । बिजली बिल आधा कर दिया जाएगा । मुफ्त पानी दिया
जाएगा । दो लाख जन-सौचालय बनाया जाएगा । बीस नए डिग्री कालेज खोले जाएंगे । आठ लाख
लोगों को नौकरी दी जाएगी । सभी को सस्ता मकान उपलव्ध कराया जाएगा । दिल्ली को
पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाएगा । आदि,आदि
। “
ऐसे-ऐसे बहुत सारे लोक लुभावन वादे किए गए । आम
नागरिकों को लगा कि आम आदमी पार्टी की सरकार बनते ही उनका दुख-दर्द समाप्त हो
जाएगा और वे भी दिल्ली में सम्मानित जीवन-यापन कर सकेंगे। इसके साथ ही पिछले सरकारों
में चतुर्दिक व्याप्त भ्रष्टाचार तो
मुद्दा था ही । अन्य पार्टियों के अंदरुनी झगड़े का लाभ भी आम आदमी पार्टी को मिला
।
लोगों का आम आदमी
पार्टी के प्रति समर्थन इतना जोरदार था कि स्वर्गीया शीला दिक्षित जैसी कांग्रेस
की कद्दावर नेता अपनी सीट नहीं बचा सकी । एक हिसाब से यह गलत निर्णय था क्यों कि
स्वर्गीया शीला दिक्षित ने दिल्ली के अपने पन्द्रह साल के शासन के दौरान दिल्ली के
कायापलट करने में अहं योगदान दी थी । दिल्ली में इस दौरान अनेकानेक फ्लाइओभरों का
निर्माण हुआ । उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर तत्कालीन सरकार ने दिल्ली में
प्रदूषण हटाने/ कम करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया, वरना रात के दौरान दिल्ली का आकाश धुंध से भरा
रहता था , ढूंढ़ने से भी कोई तारा नजर नहीं आता था ।
इस सबके बाबजूद वह चुनाव हार गई। दिल्ली के वर्तमान मुख्यमंत्री उनके विरुद्ध भारी
मतों से चुनाव जीते ।
श्री अरविंद केजरीवाल ने प्रचंड बहुमत से सन् २०१५ में
दिल्ली विधानसभा का चुनाव जीत तो लिया परंतु उसके बात उन्होंने क्या किया? सबसे
पहले अपने पुराने दोस्तों श्री प्रशांत भूषण और श्री योगेन्द्र यादव को पार्टी से
बाहर का रास्ता दिखा दिया । उन्हें पता था कि इतने बहुमत से चुनाव जीतने के बाद उनकी
कुर्सी को कोई खतरा नहीं होने बाला है ।
सो,निष्कंटक राज करने के लिए पार्टी के अंदर मुखर
रहने वाले लोगों को ठिकाना लगाना जरूरी लगा । समय बीतने
के साथ अंदरुनी असंतोष बढ़ता गया और आम आदमी पार्टी के
कई मूर्धन्य नेतागण जैसे श्री कुमार विश्वास,श्री कपिल मिश्रा,पत्रकार आशुतोष, श्री आशीष
खेतान, श्री मयंक गांधी, मधु भादुड़ी, श्री आनंद कुमार,अंजलि दामनिया,साजिआ इल्मी,एस एस धीर बारी-बारी से पार्टी छोड़कर
चले गए । फिर नित्य भारत के प्रधानमंत्री को तरह-तरह से जलील करनेवाला वक्तव्य देते
रहे। बात इसी पर नहीं रूकी । वे कई कद्देवार नेताओं के खिलाफ अनाप-सनाप आरोप लगाते रहे जिससे उन्हें कई
मानहानि के मुकदमों का सामना करना पड़ा और अंततः ऐसे कई मुकदमो में उन्हें माफी
मांगनी पड़ी । केन्द्र सरकार के साथ अधिकारों की लड़ाई करते-करते उच्चतम न्यायालय
तक पहुँच गए । वर्षों चली इस लड़ाई के दौरान दिल्ली सरकार के काम-काज पर क्या असर
पड़ा सो सभी को ज्ञात है । दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है । यह एक केन्द्र शासित
क्षेत्र है जिसमें कुछअधिकार केन्द्र सरकार के पास है तो कुछ दिल्ली सरकार के पास
। दिल्ली सरकार में भी राज्यपाल की भूमिका अन्य राज्यों से विल्कुल भिन्न है । राज्य
सरकार के मातहत आने वाले विषयों में भी असहमत होने पर उस मामले को अंतिम निर्णय के
लिए राज्यपाल केन्द्र सरकार के पास भेज सकते हैं और केन्द्र सरकार का निर्णय ही
अंतिम माना जाएगा । इस तरह की पेचीदा व्यवस्था दिल्ली में पहले से चल रही थी ।
स्वर्गीया शीला दिक्षित ने इसी परिस्थिति में बहुत काम करके दिखाया । लेकिन दिल्ली
के वर्तमान मुख्यमंत्री ने दिल्ली के राज्पाल का घेराव तक किया । सोचा जा सकता है कि इस माहौल में राज्य का शासन कैसे चला
होगा ? बात बिगड़ते-बिगड़ते इस हद तक पहुँच गई कि राज्य के
तत्कालीन मुख्यसचिव श्री अंशुप्रकाश को मुख्यमंत्री आवास में रात के बारह बजे एक
मिटिंग में बुला कर प्रताड़ित किया गया(यह मामला न्यायालय के
विचाराधीन है) । कहने की जरूरत नहीं है कि कि यह सब क्यों
किया गया?
दिल्ली में पहले
जनसंघ ,भारतीय जनता पार्टी चुनाव में जीतते रहे। ऐसा क्या हुआ कि लगातार पिछले
बीस साल से वे सत्ता से बाहर हैं और लाख प्रयास के बाबजूद चुनाव नहीं जीत पा रहे है?
इसका प्रमुख कारण दिल्ली में हर साल बिहार और उत्तर प्रदेश से रोजी-रोटी के खोज में
आने वाले लोग हैं । ऐसे लोगों की तादाद हर साल लाखों में होती है । वे यहाँ आते ही
नहीं, दिल्ली में जैसे-तैसे बस जाते हैं । हजारों की संख्या
में बने अनिधिक्रित कालोनियाँ इसके गवाह हैं । वे सभी क्रमशः दिल्ली के मतदाता बन
जाते हैं । एक समय था जब कि बिहारी शब्द
दिल्ली में गाली के रूप में प्रयोग किया जाता था । अब बात बदल गई है । इनके भारी
जनसंख्या वल के आगे सारी राजनीतिक पार्टियाँ नतमस्तक हैं । दिल्ली में
यत्र-तत्र-सर्वत्र छठ का आयोजन इतने व्यापक तौर पर सरकार द्वारा कराया जाना इसी
जनशक्ति का द्योतक है । मैथिली-भोजपुरी अकादमी बनाकर वहाँ के लोगों को सम्मानित
करने का एक और सरकारी प्रयास किया गया । यह सब मजबूरी में उठाए गए कदम हैं । लाखों
की संख्या में दिल्ली में आकर यहाँ के मतदाता बने हुए ऐसे लोगों का मत किसी भी
चुनाव में निर्णायक सावित हो रहा है । इस तरह रोजी-रोटी के खोज में दिल्ली आए
लोगों की समस्याएं बिल्कुल अलग किस्म की होती हैं । वे तो समाज के निम्नतम पौदा पर
खड़े हैं और नित्य जीवन-मरण से जूझते रहते हैं । बड़े-बड़े पूल और गगनचुंबी महलों
से इन्हें क्या लेना-देना?
इनलोगों को दिल्ली
के वर्तमान मुख्यमंत्री श्री अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में उम्मीद की किरण दिखी
। उन्होंने भ्रष्टाचारमुक्त स्वराज स्थापित करने का सपना दिल्लीवासियों को दिखाया
जो वहाँ के समाज के निम्नतम स्तर के लोगों को भी बहुत ही आकर्षित किया और इनलोगों
ने एकमुस्त आम आदमी पार्टी का समर्थन कर दिया । इस तरह दिल्ली के वर्तमान
मुख्यमंत्री के आम आदमी पार्टी को दिल्ली में मिले चुनावी सफलता में पूर्वांचलियों
का जबरदस्त योगदान था ।
दिल्ली में पूर्वांचलियों
की बढ़ी हुई तादात और आगामी चुनाव पर पड़ने वाला इनका व्यापक असर सभी दलों को
बेचैन कर रखा है । केन्द्र सरकार ने अनधिक्रित कालिनियों को नियमित करने हेतु संसद
से कानून पारित करबा दिया है । अब ऐसे कालोनियों में रह रहे लोगों के जमीन-
मकान का पंजीकरण भी हो रहा है । आम आदमी पार्टी की सरकार बहुत सारी सुविधाओं को मुफ्त
करने का एलान कर चुकी है । पानी-बिजली पर तो पहले से ही रियायत दी जा रही थी । अब
सरकारी बसों में महिलाओं को मुफ्त यात्रा करने की सुबिधा दी गई है । मोहल्ला
क्लिनिक खोला जा रहा है । मुफ्त वाई-फाई की सुबिधा कई जगहों पर दी जा रही है ।
सरकारी स्कूलों की उपलव्धियों का नित्य गुणगान किया जा रहा है । अखबारों के पन्ने
दिल्ली सरकार के विज्ञापनों से भरे रहते हैं । इतना ही नहीं,
कहा यह भी जा रहा है कि कि अगर आम आदमी पार्टी फिर से सत्ता में आती है तो दिल्ली
को स्वर्ग बना दिया जाएगा । सबाल है कि अगर ऐसा हो सकता है तो पिछले पाँच साल में क्यों
नहीं किया गया? लेकिन यह जनतंत्र है। सब को अपनी बात कहने का
अधिकार है । दिल्ली के तथाकथित प्रवुद्ध नागरिकों को एक बार फिर निर्णय लेना है कि अगले पाँच साल तक
उनको कैसी सरकार चाहिए? सबाल यह भी है कि क्या भारती जनता
पार्टी अपने राष्ट्रवादी छवि और केन्द्रीय सरकार के काम-काज के द्वारा दिल्ली के जनता
का विश्वास जीत पाएगी? हाल ही में कई राज्यों में संपन्न हुए चुनावों में जिस तरह से स्थानीय
नेतृत्व और स्थानीय समस्यायों का वर्चस्व रहा है ,उस
परिपेक्ष में सही वक्त पर सही निर्णय की जरूरत है । इतना तो तय है कि दिल्ली में
चाहे कोई दल क्यों न हो ,वह पूर्वांचलियों के समर्थन के विना
सरकार नहीं बना पाएगी। इसलिए सभी दल प्रयास रत है भी। देखना है कि आखिर बाजी किसके
हाथ लगती है ।
लेखक-रबीन्द्र
नारायण मिश्र
email: mishrarn@gmail.com
मंगलवार, 7 जनवरी 2020
नागरिकता संशोधन कानून 2019
नागरिकता संशोधन
कानून
2019
भारत के संसद के
दोनो सदनो ने संविधान द्वारा तय प्रकृया का पलान करते हुए अपार बहुमत से संसद के
हाल ही में संपन्न हुए शीतकालीन सत्र में
नागरिकता संशोधन कानून २०१९ पास किया है ।
इसके बाद बारत के माननीय राष्ट्रपतिजी ने इस कानून को अपनी मंजुरी भी दे दी है ।
भारत के राजपत्र में यह कानून प्रकाशित भी हो गया है । इस तरह यह कानून पूरे भारतवर्ष
में लागू हो गया है । इस कानून के लागू होते ही कुछ लोगों ने इसके खिलाफ भारत के
उच्चतम न्यायालय में चुनौती भी दिया है । इसके बाद माननीय उच्चतम न्यायलय ने
केन्द्र सरकार सहित सभी संवद्ध पक्षों को नोटीस जारी कर दिया है । २२ जनवरी २०२०
को इस मामले में आगे की सुनवाई होना तय है । फिर ऐसा क्या हुआ कि इस कानून को लेकर
पूरे देश में आग लगा हुआ है? विपक्षी दल खासकर कांग्रेस इसे
असंवैधानिक,सांप्रदायिक,मुस्लिमविरोधी
और न जाने क्या-क्या कहती जा रही है । क्या इस कानून के विरोधियों को भारत के
उच्चतम न्यायलय पर से भी विश्वास उठ गया है? क्या उन्हें यह
पता नहीं है कि संसद में तमाम विपक्षी दलों ने अपने तर्क-कुत्रक द्वारा इस कानून
का विरोध किया था । बाबजूद इसके अपार बहुमत से यह कानून संसद के दोनो सदनो में
पारित हो गया । इस सब के बाबजूद कुछ विपक्षी दल असमाजिक तत्वों का सहयोग लेकर सड़क पर उतड़ चुके हैं और हर संभव प्रयास
कर समाज के एकवर्ग को भड़काने में लगे हुए हैं । क्या सचमुच वे लोग लोकतंत्र से
अपना विश्वास खो चुके हैं ? अन्यथा संसद में बहुमत से पास इस
कानून को इस तरह सड़कों पर विरोध नहीं करते वह भी तब जबकि इसके विरुद्ध माननीय उच्चतम
न्यायलय सुनवाई कर रही है?
इस कानून के
विरुद्ध में सबसे पहले उत्तर-पूर्व के राज्यों से उठना शुरु हुआ । वहाँ के राज्यों
खासकर आसाम में विदेशी घुसपैठियों की समस्या बहुत पुरानी है । न्यायालय के आदेश पर
आसाम मे राष्ट्रीय नागरिकता पंजी(NRC)वहाँ पर हाल ही में बनकर
तैयार हुआ जिसमें करीब उन्नैस लाख विदेशी चिन्हित किये गए हैं जो गलत तरीके से
सालों से वहाँ जमे हुए है । पहले तो अनुमान था कि यह संख्या चालीस लाख से कम नहीं
है । लेकिन जब तय प्रकृया द्वारा उन्नीस
लाख लोग राष्ट्रीय नागरिकता पंजी(NRC)से बाहर रह गए तो तभी से कुछ लोगों ने इसके पक्ष और विपक्ष में आबाज उठाना
शुरु कर दिया था । सही बात तो यह है कि सायद ही कोई पक्ष इस तरह तैयार राष्ट्रीय
नागरिकता पंजी(NRC) से संतुष्ट हो । इसी परिस्थिति से गुजर
रहे वहाँ के समाज को कुछ दन बाद ही नागरिकता संशोधन कानून का सामना करना पड़ा ।
जाहिर है कि वहाँ के लोगों में पहले से ही विद्यमान अनिश्चितता का माहौल और गहरा
गया । चारो तरफ अराजकता का माहौल बन गया। हिंसा होने लगी । सरकारी संपत्तियों को
जलाया जाने लगा । केन्द्र सरकार ने यथासंभव कार्रवाई कर वहाँ के लोगों का गुस्सा
शांत करने में लग गई ,पर देखते ही देखते यहा आंदोलन पूरे देश में फैल गया ।
दिल्ली में और देश
के अन्य प्रान्तों में यह आंदोलन अत्यंत तीव्र गति से फैलता गया । दुख की बात यह
है कि आंदोलनकारियों ने राष्ट्रीय संपत्तियों का भारी नुकसान किया । जहाँ-तहाँ
आगजनी,लूटपाट का माहौल बना दिया गया । जाहिर है इस परिस्थिति में पुलिस हाथ पर
हाथ धरे नहीं बैठ सकती थी । आंदोलनकारियों के हिंसक व्यवहार का प्रतिरोध कानून के
राज्य को बनाए रखने के लिए अनिवार्य था । सो पुलिस को जहाँ-तहाँ शक्ति प्रयोग करना
पड़ा । इसके बाद पुलिस को गाली देने का दौड़ प्रारंभ हो गया । संभव है कि लगातार
चल रहे उग्र और हिंसक आंदोलन को सम्हालने के क्रम में पुलिस से भी गल्ती हुई हो
परंतु इसके लिए आंदोलनकारी ज्यादा जिम्मेदार हैं । आखिर इस कानून में ऐसा क्या है
कि उनको इस तरह त्वरित और उग्र कार्रवाई करने के लिए विवश होना पड़ा जबकि इसी
मामले पर उच्चतम न्यायलय में मामल लंवित है और सुनवाई की तारिख भी तय हो चुकी है ।
क्या यह उचित नहीं थT कि विपक्षी दल और आंदोलनकारी लोग
उच्चतम न्यायलय के फैसले का इंतजार करते? इस से तो यस साफ
स्पष्ट होता है कि ये लोग हर हाल में हंगामा खड़ा करना चाहते थे । पता था कि उनके विरोध प्रदर्शन में कोई कानूनी दम नहीं
है। फिर भी वे मोदी सरकार के विरुद्ध इस अवसर को पूरी तरह इस्तमाल कर लेना चाहते
थे । चूंकि लोकतांत्रिक तरीके से वे इस सरकार का सामना नहीं कर पा रहे हैं ,अस्तु, उनको लगा कि सरकार को बदनाम करने का ,इसे अस्थिर करने का यह स्वर्णिम अवसर लगता है । इस तरह सुचिंतित कार्रवाई
कर इनलोगों ने देश का माहौल बिगाड़ने का काम किया है ।
जिस तेजी से यह
आंदोलन पूरे देश में फैलता चला गया वह
अपने-आप में रहस्यात्मक है । कारण यह कानून बेशक लागू हो गया है परंतु व्यवहारिक तौर पर किसी पर इसका प्रतिकूल प्रभाव
पड़ा हो ऐसा संभव नहीं लगता है । तमाम
विपक्षी नेता इस प्रकार एक स्वर से इस कानून के खिलाफ खड़े हो गए हैं जैसे कि कोई
बहुत बड़ा अनर्थ हो गया हो । वास्तविक में इन सबको बोटबैंक बनाने का एक सुंदर अवसर
लग रहा है । समाज के एकवर्ग को भयभीत कर ,कानून की गलत-सलत एवम् मनमानी व्याख्या कर भ्रम की स्थिति पैदा
करने में वे तात्कालिक रूप से सफल होते नजर आ रहे हैं । परंतु,राष्ट्रीय एकता को अकारण हो रहे क्षति को कोई सोच नहीं पा रहे हैं ।
देश-विदेश में भारत की प्रतिष्ठा को अकारण खराब किया जा रहा है । पश्चिम बंगाल की
मुख्यमंत्री ने तो संयुक्त राष्ट्र तक को दखल देने का आग्रह कर दी है । साथ ही
उन्होंने और कई और मुख्यमंत्रियों ने इस कानून को अपने राज्य में लागू नहीं करने
का एलान कर दिया है । लेकिन सबसे आगे तो केरल के मुख्यमंत्री ने राज्य के
विधानसभामें इस कानून के खिलाफ प्रस्ताव भी पास करबा दिया है। यह कितना
दुर्भाग्यपूर्ण है कि दिन-रात संविधान की दुहाई देनेवाले राजनेता स्वयं संवैधानिक प्रावधानों
का कुछ भी ख्याल नहीं कर पा रहे हैं । यह सर्वविदित तथ्य है कि राज्य की विधानसभा
इस मसले पर प्रस्ताव पास नहीं कर सकती है
क्यों कि नागरिकता के विषय में संसद ही
कानून बना सकती है । फिर कैसे कोई राज्य संसद द्वारा विधिवत पास कानून को लागू
नहीं करने का सरेआम एलान कर सकता है और साथ ही स्वयं को संविधान का रक्षक घोषित कर
सकता है?
यह भी कम आश्चर्य
की बात नहीं है कि नागरिकता संशोधन कानून का हिंसक विरोध उनही राज्यों में हुआ
जहाँ बीजेपी या उसके सहयोगी/ समर्थक दलों की सरकारे हैं । इस तरह से
खास-खास जगहों पर हिंसक घटनाएं घटित होना प्रायोजित ही लगती हैं । उसमें शामिल वे
लोग ही हो सकते हैं जिनका इस देश की संपत्तियों को वर्वाद करने में तनिक भी दुख
नहीं होता है,जिन्हें इस तरह के आचरण से चतुर्दिक भय का
वातावरण कायम करना ही मूल उद्देश्य है,जो भारत की तरक्की
नहीं देखना चाहते हैं,जो दुनिया में भारत को बदनाम करना
चाहते है,इसकी एक गलत छवि बना देना चाहते हैं । ताज्जुब की
बात है कि यह सब इतने तेजी से हुआ । ऐसा लग रहा है कि वे लोग घात लगाए मौका का
पहले से ही प्रतीक्षा कर रहे थे । अब जब कई राज्यों में हिंसा फैलाने वाले लोग पकड़े जा रहे हैं तो उनमें
विदेशी ताकतों की संलिप्तता स्फष्ट हो रही
है । जनतंत्र में विरोध करने का,सरकार से अलग राय रखने और
व्यक्त करने का अधिकार देश के नागरिक को है । इस में कोई दो राय नहीं हो सकता है ।
परंतु विरोध शांतिपूर्ण ढ़ग से व्यक्त किया जाना चाहिए । किसी को हिंसक आंदोलन को
चलाने का या समर्थन देने का अधिकार नहीं है । अगर इस तरह हिंसक गतिविधि चलता रहा
तो देश में लोकतंत्र कबतक सुरक्षित रह पाएगा?
इन तमाम विवादों
में उत्तर प्रदेश की सरकार ने एक अच्छा मिसाल कायम किया है । जो लोग सार्वजनिक
संपत्तियों को नष्ट करने में शामिल पाए जा रहे हैं उन्ही लोगों से उसका हर्जाना
अदा करने का आदेश दिया जा रहा है और सुनते हैं कि कुछ लोगों ने दिया भी है । इस
तरह की कार्रवाईके बाद उत्तर प्रदेश में हिंसक विरोध कमा है । उपद्रवी भयभीत हैं ।
उन्हें लगने लगा है कि गलत करने वालेलोग कानून की गिरफ्त से बँच नहीं पाएंगे ।
अन्य राज्यों में भी ऐसा ही हो तो ऐसे अराजक तत्वों को हिंसक गतिविधि करने का साहस
नहीं होगा और वे भाग खड़े होंगे ।
सबाल ये भी है कि इस कानून का विरोधकरनेवाले लोग
क्या वास्तविक रूप से परेशानी में पड़ गए हैं । क्या इस कानून ने उनसे कुछ भी छीन
लिया है जो अबतक उनको सुलभ था ?इस कानून का सबसे पहले आसाम में विरोध
होने का मूल कारण आसामी लगों के मन में उपजा यह भय है कि इस से वंगलादेश से आए विदेशी लोगों का वहाँ
बसना आसान हो जाएगा जिसे उन लोगों का सांस्कृतिक एवम् भाषायी विरासत खतरे में पर
सकता हे । सभी जानते हैं कि इनही कारणों से आसाम में लंबे अवधि तक आंदोलन हुआ था
जिसका अंत आसाम समझौता द्वारा संभव हो सका । आसाम समझौते के तहत २४ मार्च १९७१ तक वहाँ बसे हुए लोगों को भारत की नागरिकता प्राप्त
करने के उपयुक्त माना जा सकता है , लोगों का नागरिकता पंजी
में नाम अंकित हो सकता है जबकि नये कानून के अनुसार ३१ दिसम्बर २०१४ तक भारत में आ चुके
शरणार्थियों को पात्रता मिल जाती है ।
नागरिकता संशोधन
कानून २०१९ में यह प्रावधान है कि ३१ दिसम्बर २०१४ तक पाकिस्तान,बंगला
देश और अफगानिस्तान से आकर भारत में शरण लेने वाले वहाँ के उत्पिड़ित अल्पसंख्यकों को भारत की
नागरिकता दी जा सकती है । इस कानून का विरोध करने वालो का कहना
है कि यह कानून भारतीय संविधान की मूल आत्मा- धर्म निरपेक्षता के खिलाफ है । यह संविधान के अनुच्छेद १४ में दिए गए
समानता के सिद्धान्त के भी खिलाफ है । उनके कहने का सारांश यह है कि अन्य धर्मावलंवियों
के तरह पाकिस्तान,वंगलादेश और अफगानिस्तान से आए हुए
मुसलमानों को भी इस कानून के तहत नागरिकता प्राप्त करने दिया जाए । नागरिकता कानून
में इस संशोधन करने का मूल तात्पर्य ही इन देशों में प्रताड़ित हो रहे अल्पसंख्यकों को राहत
देना है । नागरिकता कानून के संशोधित प्रवधानों के तहत पाकिस्तान,वंगलादेश और
अफगानिस्तान से आए प्रताड़ित अल्पसंख्यकों को छ: वर्षों की
छूट मिल जाती है। जबकि सामान्यतः इस तरह नागरिकता प्राप्त करने के लिए भारत में
एगारह वर्ष रहना जरूरी होता है,इस कानून के तहत यह अवधि पाँच
वर्ष कर दी गई है । सोचने की बात है विशेष
रूप से सताए गए लोगों के हित में बस इतने से अंतर के लिए, इस
तरह का बबाल खड़ा कर देना क्या उचित है? इस कानूनी संशोधन
में ऐसा कुछ भी नहीं है जो भारत के किसी भी नागरिक के खिलाफ हो । एक अनुमान के मुताबिक संशोधित अधिनियम के तात्कालिक लाभार्थी 31,313
लोग होंगे- 25,447 हिंदू, 5,807 सिख, 55 ईसाई, 2 बौद्ध और 2
पारसी। निश्चय ही इतने बड़े भारत देश के लिए यह संख्या बहुत नगण्य
है ।
सरकार और प्रवुद्ध
नागरिकों द्वारा निरंतर हो रहे प्रयास के बाबजूद आंदोलनकारी जनता में इस कानून के
प्रति भ्रम फैलाने में लगे हुए हैं । वे वारंबार कहते जा रहे हैं कि भारत में रह
रहे मुस्लिमों के नागरिकता पर समस्या हो सकती है । एनपीआर राष्ट्रीय जनसंख्या पंजी
और राष्ट्रीय नागरिकता पंजी का हबाला देकर मुस्लिमों को डराया जा रहा है । यह सब
तब भी हो रहा है जब प्रधाममंत्रीजी ने खुद कईबार स्पष्ट कर दिया है कि राष्ट्रीय
नागरिकता पंजी पर अभी कोई निर्णय नहीं हुआ है और इसका नागरिकता संशोधन कानून से
कोई लेना-देना नहीं है।
यहाँ यह जान लेना उपयुक्त होगा कि एनपीआर
‘देश के सामान्य निवासियों’ की एक सूची है। गृह मंत्रालय के मुताबिक, ‘देश का सामान्य
निवासी’ वह है जो कम-से-कम पिछले छह महीनों से स्थानीय क्षेत्र में रहता हो या
अगले छह महीनों के लिये किसी विशेष स्थान पर रहने का इरादा रखता है। देश में लोगों
की संख्या का रजिस्टर, जो गांव, कस्बे,
तहसील, जिला, राज्य,
राष्ट्रीय स्तर पर तैयार होता है। 2010 में
यूपीए शासन ने इसे लागू किया था।
एनपीआर का विचार यूपीए शासनकाल के समय
वर्ष 2009 में
तत्कालीन गृह मंत्री पी. चिदंबरम द्वारा लाया गया था। लेकिन उस समय नागरिकों को
सरकारी लाभों के हस्तांतरण के लिए सबसे उपयुक्त आधार प्रोजेक्ट का इससे टकराव हो
रहा था। एनपीआर के लिए डाटा को पहली बार वर्ष 2010 में
जनगणना-2011 के पहले चरण, जिसे हाउस
लिस्टिंग चरण कहा जाता है के साथ एकत्र किया गया था। वर्ष 2015 में इस डाटा को एक हर घर का सर्वेक्षण आयोजित करके अपडेट किया गया था। इसे
अपडेट करना कानूनी बाध्यता है।राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर यानी एनपीआर के लिए
जानकारियां जुटाने के तरीके में केंद्र सरकार में कुछ बदलाव किए हैं। अब एनपीआर
में बायोमैट्रिक जानकारियां नहीं मांगी जाएंगी और न ही किसी प्रकार का कोई
दस्तावेज लिया जाएगा। इसे पूरी तरह से स्वघोषित रखा जाएगा।
नागरिकता (संशोधन)
अधिनियम,
2003 (क्रमांकित) 2004 का अधिनियम 6 के तहत केन्द्र सरकार भारतीय नागरिकों का राष्ट्रीय पंजी तैयार करबा सकती
है ।1955 का नागरिकता अधिनियम भारत के प्रत्येक नागरिक के
लिए अनिवार्य पंजीकरण और उसे राष्ट्रीय पहचान पत्र जारी करने का प्रावधान करता है। 2003
के नागरिकता नियम, 1955 के नागरिकता अधिनियम
के तहत बनाए गए, राष्ट्रीय नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर की
तैयारी का तरीका बताते हैं। एनआरसी में अवैध अप्रवासियों की पहचान करने की बात कही गई है, चाहे
वे किसी भी जाति, वर्ग या धर्म के लोग हों । एनआरसी बहरहाल
सिर्फ असम में लागू है जबकि सीएए देशभर में लागू होगा।
लेखक-रबीन्द्र नारायण मिश्र
Email:mishrarn@gmail.com
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